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जिन्दगी और साहित्य

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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आदमी जैसे ही जन्म लेता है और बढ़ता जाता है,साहित्य की भी वृद्धि उसी अनुरूप होती जाती है। जन्म के बाद ही छठी-गीत गाया जाता है और सनातन धर्म में १६ संस्कार तो मृत्युपर्यंत होते हैं जिसमें हर स्तर पर साहित्य जुड़ा रहता है।
तब साहित्य क्या है ? ‘सहितस्य भावं साहित्यं।’ ‘सहित=स+हित=सहभाव, अर्थात हित का साथ होना ही साहित्य है। साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘लिटरेचर’ का पर्यायी है,जिसकी उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘लेटर’ से हुई है।
साहित्य मानव के विचारों की अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम भी है। यह अपने ज्ञानामृत से समाज और संस्कृति दोनों को सार्थक दिशा देने का विकल्प है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की नजरों में-“आज से लगभग हजार वर्ष पहले हिन्दी साहित्य बनना शुरू हुआ था। इन हजार वर्षों में भारतवर्ष का हिन्दीभाषी जन-समुदाय क्या सोच-समझ रहा था, इस बात की जानकारी का एकमात्र साधन हिन्दी साहित्य ही है।”
साहित्य के अंतर्गत कहानी,कविता,नाटक, निबंध,जीवनी,समालोचना आदि आते हैं।
यहाँ ध्यान ध्यान देने की बात है कि केवल संस्कृतनिष्ठ या क्लिष्ट लिखा ही साहित्य नहीं होता है और न ही अनर्थक तुकबंदी को साहित्य कहा जा सकता है। जब शब्द और अर्थ के बीच सुंदरता के लिए स्पर्धा या होड़ लगी हो तो वहाँ पर साहित्य की सृष्टि होती है। उदाहरण के लिए जब यह कहा जाता है कि ‘साहित्य समाज का दर्पण है’, तो साहित्य में रचनाकार अपने सामाजिक सरोकारों से बिल्कुल भी विमुक्त नहीं हो सकता। यही मुख्य कारण है कि साहित्य अपने समय का इतिहास बनता जा रहा है।
विज्ञ मानते हैं कि ‘साहित्य’ शब्द का प्रयोग ७-८वीं शताब्दी से मिलता है। इससे पूर्व साहित्य शब्द के लिए काव्य शब्द का प्रयोग होता था। भाषा विज्ञान का यह नियम है कि,जब एक ही अर्थ में दो शब्दों का प्रयोग होता है,तो उनमें से एक अर्थ संकुचित या परिवर्तित होता है। संस्कृत में जब एक ही अर्थ में साहित्य और काव्य शब्द का प्रयोग होने लगा,तो धीरे-धीरे काव्य शब्द का अर्थ संकुचित होने लगा। आज काव्य का अर्थ केवल कविता है और साहित्य शब्द को व्यापक अर्थ में लिया जाता है। साहित्य का तात्पर्य अब कविता,कहानी,उपन्यास,नाटक, आत्मकथा अर्थात् गद्य और पद्य की सभी विधाओं से है।
काव्य के स्वरूप को लेकर उसे परिभाषित करने का प्रयास इ.स.पूर्व २०० से अब तक हो रहा है। विविध विद्वानों ने साहित्य के लक्षण प्रस्तुत करते हुए उसे परिभाषित करने का प्रयास किया,किंतु इन प्रयासों में कहीं अतिव्याप्ति,तो कहीं अव्याप्ति का दोष है।
संस्कृत,हिंदी और अंग्रेजी के विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की रश्मिरथी से निम्नलिखित पंक्तियाँ साहित्य के इस आयाम का बहुत ही अच्छा उदाहरण हैं-
” ‘जय हो’ जग में जले जहाँ भी,नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे,हमारा नमन तेज को बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में,पर, नमस्य हैं फूल,
सुधी खोजते नहीं गुणों का आदि,शक्ति का मूल।

ऊंच नीच का भेद न माने,वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो,सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही भरी हो,जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है,जिसमें हो तप-त्याग।

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।’

राष्ट्रीय भावना के कवि मैथिलीशरण गुप्तजी की ये पंक्तियाँ भी इसी संदर्भ में हैं:
‘संसार में किसका समय एक-सा रहता सदा,
हैं निशि-दिवा-सी घूमती सर्वत्र विपदा-संपदा।
जो आज एक अनाथ है,नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव मग्न है, कल शोक से रोता वही!’
यदि संक्षेप में कहा जाए तो ‘साहित्य’ शब्द, अर्थ और भावनाओं की ऐसी त्रिवेणी है जो जनहित की धारा के साथ-साथ उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित है!
जिन्दगी में हम जिस स्थान पर रहते हैं, साहित्य भी हमसे उसी के अनुरूप जुड़ जाता है। मुझे याद है कि सबसे पहले जो मैंने अपनी आठवीं कक्षा में आठवीं-नौवीं कक्षा की संयुक्त हस्तलिखित पत्रिका के लिए कविता लिखी थी,वह सरस्वती-वंदना थी, जिससे पत्रिका आरंभ हुई। वह रचना तो अब याद नहीं,पर वही भावना मुखर होकर वेद में दिए गए सरस्वती-स्तुति के अंशों के पद्यानुवाद में,मेरी बैंक से अवकाश प्राप्ति के बाद प्रकट हुई!

“पावका न: सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती।
यज्ञं वसष्टु धियावसु:।।’
(ऋगवेद १.३.१०.)
अर्थात् ,
हे सरस्वती! हे विद्यादेवी! पावनता की तुम प्रतीक!
हे बुद्धि, ऐश्वर्यदायिनी! ज्ञान-यज्ञ पूर्ण करने आओ मेरे नजदीक!

‘महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
धियो विश्वा वि राजति।’ (ऋग्वेद १.३.१२)

हे नदी सरस्वती,जलभरी बहनेवाली,
हे देवी सरस्वति तुम सुमति जगानेवाली,
भारी ज्ञान-समुद्र प्रभासित करनेवाली!
तुम्हीं हो याजक-प्रज्ञा प्रखर बनानेवाली!
आए दिन कोई-न-कोई बड़ी घटना घटती रहती है,जिसका असर जीवन पर पड़ता है। २००१ में ११ सितम्बर को अमेरिका में ट्वीन-टावर से वायुयान टकराकर किए गए हमले से दिल तो द्रवित हुआ ही,मन बड़ा विचलित हुआ। स्वत: स्फूट रचना ‘आतंक ज्वाल’ के कुछ अंश सुनें-
‘मानवता का जो दहन हुआ,उसको सहन कौन करेगा ?
भड़कायी जो आग तुमने-उसमें जल-जल कौन मरेगा ?

कितने छितराये रुंड-मुंड,कितने जलकर हुए राख;
आज भी है जिनके लिये-रहता जग दिन-रात जाग!

यह कौन सा विध्वंश उन्माद,है कौन-सी वन्दनीय शूरता;
लाचारों को मार दिखायी है तुमने कौन- सी वीरता ?

क्या इस नृशंस-कार्य को-हुए हजारों जिसके शिकार;
धर्म की चादर ढँक पायेगी ? छिपाने अधर्म का व्यवहार।

माना तुमको मरना ही था,नभ में नहीं मरते तो थल में;
मारे ही जाते उनके ही हाथों-जिसने तुझे बदला कल में!

पर अगर तुम खुद मरकर-निर्दोषों को जिला जाते;
पूजे जाते तुम सकल विश्व-देवों,वीरों का तुम दर्जा पाते!
दिसम्बर २००४ को एक अनहोनी घटना हो गई। ‘सुनामी’ नाम से जल-प्रलय हो गया। इस जल-प्रलय में कितने डूबे,कितने डूबते-डूबते मरकर बचे। कई देशों में ऐसा हुआ। विनाश की यह लीला देखकर,दिल दहल उठा। मेरी भावनाएँ भी सुनामी की तरह ही बंधन तोड़ कर निकल पड़ीं। ‘सुनामी-कहर’ नाम की कविता का स्पर्श आप भी करें-
“जहाँ खुशी लहर चलती थी,वहाँ प्रचंड तट लहर चल गई;
मानव अस्तित्व को मिटाने-प्रलय प्रखर कह़र डस गई!

गरजती हुई सिंधु की लहरें,कुटिल काल के जालों सीे;
उगलती फेन थी आ गई-नापने गोलाई गालों की!

जैसे फन उठाये कोटि फणी,दुनिया निगलने आ रहे हों;
कोई बच भी अगर जाये तो-वे जहर डँसाने आ रहे हों!
भीषण रव से काँपती धरती-थी बेबस तिलमिला रही,
ढहने को आतुर आसमान से-विकल धरा थी बिलबिला रही!

भला किसे पता अथाह समुद्र,क्षण में कैसे खाली हो गया;
और पल भर में पानी पलट-सब-कुछ धरा का डुबो गया!

प्रलय का वह वीभत्स दृश्य-दिसम्बर माह स्याह बना गया;
असमय का प्रकृति कह़र वह-मानव उछाह था मिटा गया!

सुनामी लहरों का कंपन,मानव आँखों का क्रन्दन;
देख भारत क्या सकल विश्व-हुआ विकल लड़ने को तत्क्षण!
सुनामी के ढाये विनाश से- सुनामी-दुर्नामी भेद मिट गया;
आपस के भेद मिटाकर-विश्व एक में सिमट गया!”

अक्सर पर्यावरण की बड़ी चर्चा होती है। कहीं जो हरे-भरे बाग लगे थे,वहाँ आज कंकरीट का जंगल खड़ा हो गया-
“अब कहाँ गये वे घने ब़ाग-जिसके तल की अंधियारी;
कँपाती थी बालक मन को-जाने से जाती थी नानी मारी!

गाँव-शहर सजते बागों से-घर-द्वार पेड़ से सजते थे;
कभी बच्चों को यूँ ही डराने-हर पेड़ पर भूत गढ़ते थे!

कहाँ गये वे गिद्ध सारे-मरी जो चट कर जाते थे;
कौओं के अब झुंड कहाँ-बच्चों से झपट जो खाते थे!

पतित-पावनी दूर हो गई-गंगा जल निर्मल पायें कहाँ;
जलचर कितना मल खायें-कचरा अटा गंगा में जहाँ!

थी अमराई लहराती जहाँ-कंकरीट-जंगल पनपे वहाँ;
दाघ-निदाघ के मौसम में-दुपहरी की अब छाँह कहाँ!

पॉलिथिन जाके भी खड़ा है,जहाँ-तहाँ छितरा पड़ा है;
चरता मवेशी घास बदले-जिसको खाकर मरा पड़ा है!

कारखाने का धुआँ छा रहा,पथ पर पथिक जहर खा रहा;
पशु-पक्षी के बाजार में तो-मौत का ही व्यापार भा रहा!

कूड़ा घर से कौन निकाले-कूड़ा छिपाना धर्म बना है;
गाना बजाती गाड़ी आती-फेरा लगाना ही कर्म ठना है!

तब कैसे कोई आगे आये-विकास का नवमंत्र अपनाये;
पर्यावरण संवर्द्धन हित में- प्रदूषण-नियंत्रण में लग जाये!

प्रकृति-सुरक्षा संरक्षण कर-एक नया संतुलन भी बनाएं;
धरा पर मानव विकास हित ही-सुंदर पर्यावरण सरसायें!

जनसंंख्या का बोझ लिए-यह धरती ही आज झुकी है;
अवश कोरोना के चलते-विश्व तक की सांस रुकी है!

मानव-अस्तित्व पर लटकी-विनाश की यह तलवार हटाएं;
पर्यावरण की पुकार को ही-विकास का
वन्दनवार सजाएँ!”

कोरोना महामारी से अभी संपूर्ण विश्व में त्राहि-त्राहि मची है। करीब ३ माह की तालाबंदी हो गई और मानव का मन भीतर से डरा हुआ है कि क्या पता कब वह भी इसकी चपेट में आ जाए! ऐसी स्थिति में किसका दिल पुकार नहीं उठता है-
‘कोरोना!’ क्या गजब ढा दिया,तुमने विश्व को एक बना दिया;
पदवी तेरी तो नोवेल की है,पर तुमने सबको डरा दिया!
और बात-बात पर सभी का-साबुन से हाथ धुला दिया!
बच्चे लादे थे जो बस्ते रहते-उनको भी है घर बिठा दिया!
मुंह से बात को थे जो तरसते-उन्हें दूरसे बात करना सिखा दिया!
अस्ताचलगामी थे जो न डरते-उन्हें भी मौत से डरा दिया!
धनियों का धन है लुट गया,शेयर है कितना लुढ़क गया;
घर में जो बंद रहना पड़ा तो बाजार से माल खिसक गया!
बाएँ-दाएँ की थी जो लड़ाई,कोरोना तुमने मुल्तवी कराई!
चीन से जलजला जो चला-अमरीका में जाकर भिड़ा!
रोमन कैथोलिक इटली क्या-ईरान में मुल्ले के गले पड़ा!
वुहान से तेहरान चलकर,स्पेन से जापान में जमकर;
ब्राजील व भारत में आकर-आया मुंबई कुहराम मचाकर!
इस्राइली फिलिस्तीनी जो लड़ते-तेरे डर से हैं अभी न भिड़ते!
पाकिस्तान को भी रास न आया; जमाती ने ही सहारा बनाया!
बात-बात में थे सैर जो करते-हवा में दिन और रात उड़ते;
वे रेल पर भी कहाँ अब चलते, घर को लाखों पैदल चलते!
हाथ मिलाकर जो थे गले लगते-वे दूर से ही अभिवादन करते!
दो केहुनी को भी सटा दिया-कोरोना! नव चलन चला दिया!
आर्यावर्त था जो समुद्र पार छाया-जो बन गया था भारत पराया;
उसी ने फिर भारत को अपनाया-
मुरदों का जलानाा सही बतााया!
रे दुश्मन! तुम गले ही पड़ गये-
पर, हमने तो गले से हटा दिया!
तुमसे बचने को हमने भी तो-
दूरी बना,ताला लटका दिया!
कोरोना! नमस्ते हम हैं कहते-
पर, हमने तो जग है मिला लिया!
किसी का जीवन याद करेगा-
कोरोना कभी यहाँ था आया;
लेकिन हमसब ने एकजुट होकर-
उसे मार दूर था भगाया!

और चलते-चलते-
जीवन का कितना सफर,है सोच से ऊपर;
क्या खोया,क्या पाया,क्या सोचना इधर?
जग कहता अब रहो घर,चूर हुए तुम थककर;
विश्राम की बेला है,अब देखो तो ठहर!
पर कहता है मन इतर,जीवन जीना अगर;
क्या हो सकते बाहर,जीवन की इस डगर!
जीने की ही चाह से,चढ़ती है यह उमर;
हाल पथिक का क्या हो,रुक जाये गर डगर!
इस वार्द्धक्य भार पर, अनुभव का है असर;
अब त्याग और तप पर,कसी हुई है कमर!
बढ़ती जा रही ऊमर,संग उछाह पुरअसर;
पर और क्या बढ़ा है,जीवन के इस बसर!
सांस गर साथ हो तो,मिलती सबकी नज़र;
पर बाद भला क्या हो,लग जाये जब नजर!
दम चलता रहे निरन्तर,हम चाहते हैं गर;
जीवन की चुनौती को,जीत लें हर समर!
कुछ करत रहें ऐसा,लगे जो जीवन भर;
कल के सपने सच करने,रहे हम सदा तत्पर!
जिस हाल में भी हम हों,चलें हम सब मिलकर;
होगा जरूर गरिमामय,जीवन का यह सफर!

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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