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प्रेम,संवेदना और ममत्व की पराकाष्ठा ‘माँ’

ललित गर्ग
दिल्ली

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‘अन्तर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस’ १० मई विशेष……….


‘अन्तर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस’ सम्पूर्ण मातृ-शक्ति को समर्पित एक महत्वपूर्ण दिवस है,जिसे मातृ दिवस या माताओं का दिन चाहे जिस नाम से पुकारें,यह दिन सबके मन में विशेष स्थान लिए हुए है। पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो माँ के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दु:ख का सामना बिना किसी शिकायत के करने वाली माँ के साथ बिताए दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। भारतीय संस्कृति में माँ के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही है,लेकिन आज आधुनिक दौर में जिस तरह से ‘मदर्स-डे’ मनाया जा रहा है,उसका इतिहास भारत में बहुत पुराना नहीं है।
मातृ दिवस-समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का उत्सव है। माँ शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। माँ के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है,जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। माँ नाम है संवेदना,भावना और अहसास का। माँ के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छाया में माँ न केवल अपने बच्चों को सहेजती है,बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। समाज में माँ के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। मातृ दिवस सभी माताओं का सम्मान करने के लिए मनाया जाता है। एक बच्चे की परवरिश करने में माताओं द्वारा सहन की जानें वालीं कठिनाइयों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए यह दिन मनाया जाता है। कवि राॅबर्ट ब्राउनिंग ने मातृत्व को परिभाषित करते हुए कहा है-“सभी प्रकार के प्रेम का आदि उदगम स्थल मातृत्व है और प्रेम के सभी रूप इसी मातृत्व में समाहित हो जाते हैं। प्रेम गहन,अपूर्व अनुभूति है,पर शिशु के प्रति माँ का प्रेम एक स्वर्गीय अनुभूति है।”
‘माँ’-इस लघु शब्द में प्रेम की विराटता- समग्रता निहित है। अणु-परमाणुओं को संघटित करके अनगिनत नक्षत्रों,लोक- लोकान्तरों,देव-दनुज-मनुज तथा कोटि-कोटि जीव प्रजातियों को माँ ने ही जन्म दिया है। माँ के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है,या यूँ कहें कि माँ ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम की यह चरमता केवल माताओं में ही नहीं,वरन् सभी मादा जीवों में देखने को मिलती है। अपने बच्चों के लिए भोजन न मिलने पर हवासिल (पेलिकन)नाम की जल-पक्षिनी अपना पेट चीर कर अपने बच्चों को अपना रक्त-माँस खिला-पिला देती है।
कितनी दयनीय बात है कि देश ने स्त्री की शक्ति के रूप में अवधारणा दी,जिसने पुराणों के पृष्ठों में देवताओं को ४ या ८ हाथ दिए, किन्तु देवियों को १०८ हाथ दिए,उसी ने स्त्रियों को पुरुषों से नीचा स्थान दिया और उन्हें वेद पढ़ने के अधिकार से वंचित कर दिया। माँ को उसकी दैवीय सम्मान दिलाना वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता में से एक है।
माँ प्राण है,माँ केवल जन्मदात्री ही नहीं जीवन निर्मात्री भी है। धरती पर जीवन के विकास का आधार है। सभ्यता के विकास क्रम में आदिमकाल से लेकर आधुनिक काल तक इंसानों के आकार-प्रकार में,रहन-सहन में,सोच-विचार,मस्तिष्क में लगातार बदलाव हुए,लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया। उस आदिम युग में भी माँ,माँ ही थी। तब भी वह अपने बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करती थीं। उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा करना सिखाती थी। आज के इस आधुनिक युग में भी वैसी ही है।
माँ को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। सच तो यह है कि माँ विधाता से कहीं कम नहीं है, क्योंकि माँ ने ही इस दुनिया को पाला-पोसा है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा किसी को नजर आये न आए,माँ हर किसी को हर जगह नजर आती है। कहीं अण्डे सेती,तो कहीं अपने शावक को,छोने को,बछड़े को,बच्चे को दुलारती हुई नजर आती है। माँ एक भाव है मातृत्व का,प्रेम और वात्सल्य का,त्याग का और यही भाव उसे विधाता बनाता है।
माँ सपने बुनती है और यह दुनिया उसी के सपनों को जीती है और भोगती है। माँ जीना सिखाती है। पहली किलकारी से लेकर आखिरी साँस तक माँ अपनी संतान का साथ नहीं छोड़ती। माँ पास रहे या न रहे,माँ का प्यार-दुलार,दिए हुए संस्कार जीवनभर साथ रहते हैं। माँ ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती हैं। इसीलिए प्रथम गुरु कहा गया है। स्टीव वंडर ने सही कहा है कि मेरी माँ मेरी सबसे बड़ी अध्यापक थी,करुणा, प्रेम,निर्भयता की एक शिक्षक। अगर प्यार एक फूल के जितना मीठा है,तो मेरी माँ प्यार का मीठा फूल है।
प्रथम गुरू माँ कभी लोरियों में,कभी झिड़कियों में,कभी प्यार से तो कभी दुलार से बालमन में भावी जीवन के बीज बोती है। इसलिए यह आवश्यक है कि मातृत्व के भाव पर नारी मन के किसी दूसरे भाव का असर न आए। जैसा कि आज कन्या भ्रूणों की हत्या का सिलसिला बढ़ रहा है,वह नारी-शोषण का आधुनिक वैज्ञानिक रूप है तथा उसके लिए मातृत्व ही जिम्मेदार है। कन्या भ्रूणों की बढ़ती हुई हत्या एक ओर मनुष्य को नृशंस करार दे रही है,तो दूसरी ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है। अन्तर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस को मनाते हुए मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे अनेक धुंधलकों को मिटाना जरूरी है,तभी इस दिवस की सार्थकता है।

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