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महाराष्ट्र:साम्प्रदायिक बनाम धर्मनिरपेक्ष मुद्दे का तर्पण

राकेश सैन
जालंधर(पंजाब)
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महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडणवीस ने बहुमत साबित होते न देख अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और राज्य में शिवसेना,कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस गठजोड़ अस्तित्व में आ चुका है। राज्य में सरकार के गठन को लेकर किसने कैसे-कैसे हथकण्डे अपनाए, इस पर काफी बोला जा चुका है,परन्तु मराठा भूमि पर देश की राजनीति में साम्प्रदायिक बनाम धर्मनिरपेक्ष जैसे एक ऐसे व्यर्थ के मुद्दे का अस्थि विसर्जन होता दिख रहा है,जिसने तीन दशक से अधिक समय तक केवल देश की राजनीति ही नहीं,बल्कि चिन्तन को भी अपने भँवर जाल में उलझाए रखा। धर्मनिरपेक्ष राजनीति की स्वघोषित मन्दाकिनी कांग्रेस के लिए अब शिवसेना पर लान्छित की जाने वाली साम्प्रदायिकता कोई मुद्दा नहीं रही। देश की राजनीति में आए इस नए बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए। आशा की जानी चाहिए कि इसके बाद देश के राजनीतिक गठजोड़ व बौद्धिक चिन्तन जनता व देश से जुड़े अर्थपूर्ण मुद्दों पर आधारित होंगे,न कि धर्मनिरपेक्ष और साम्प्रदायिक जैसे ढोंग पर।
देश में पिछले तीन दशकों से धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता शायद राजनीतिक व बौद्धिक विमर्श में सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाले शब्द रहे हैं। १९९० के दशक में चले श्रीराम मन्दिर आन्दोलन और भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक उभार के बाद देश को मानो सेकुलर व कम्यूनल नामक खान्चों में बाँटने का कुत्सित प्रयास हुआ,जो काफी सीमा तक सफल भी रहा। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर साम्प्रदायिकता का ऐसा कागज(छवि) चस्पा कर दिया गया कि इनसे अछूतों की तरह अपमानजनक व्यवहार किया जाने लगा। दूसरी ओर हर राजनीतिक व बौद्धिक अपराध ही नहीं,बल्कि भ्रष्टाचार,जिहादी आतंकवाद व तुष्टिकरण जैसी राष्ट्रघाती व्याधियों को धर्मनिरपेक्षता की चाशनी में भिगो कर देशवासियों को गटकाया गया। अपनी १३ दिन की सरकार के विदाई भाषण में पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसका मलाल जताया कि एक राजनीतिक दल जो देश की संवैधानिक व्यवस्था में विश्वास रखता है और बाकी दलों की तरह एक ही चुनाव आयोग द्वारा ही पंजीकृत है,तो उससे इस तरह राजनीतिक अछूतों की तरह व्यवहार करना ठीक नहीं, परन्तु उनकी इस लोकतान्त्रिक पीड़ा को छद्म धर्मनिरपेक्ष शकुनियों व दुशासनों के बेशर्म अट्टाहासों ने दबा दिया,लेकिन २०१४ में देश की राजनीति में आए बदलाव ने जहां धर्मनिरपेक्ष व साम्प्रदायिकता के मुद्दे की नाभि पर रामबाण-सा प्रहार किया,वहीं अब धर्मनिरपेक्षता की स्वयंभू महामण्डलेश्वर कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस ने शिवसेना के साथ गठजोड़ कर इस मुद्दे का तर्पण भी कर दिया लगता है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
आईए जानते हैं कि साम्प्रदायिक व धर्मनिरपेक्ष मुद्दे जैसी व्याधि की दाई कौन है। संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द १९७६ में आपातकाल के दौरान ४२वें संशोधन से जोड़ा गया। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि संविधान निर्माताओं ने इसकी प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द का उल्लेख करना आवश्यक नहीं समझा। उनका सम्भवत: यह विचार था कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान व सामाजिक व्यवहार की मूल अवधारणाओं और व्यवहार में से एक है,और इसलिये इसका अलग से उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं। संविधान में कहीं भी ऐसा निर्देश नहीं दिया गया कि नागरिकों के बीच किसी भी आधार पर कोई भेदभाव किया जाये। संविधान-निर्माता यह मानकर चल रहे थे कि संविधान तो धर्मनिरपेक्ष है ही और उसका अलग से उल्लेख निरर्थक होगा,परन्तु तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने ४२ वें संशोधन से धर्मनिरपेक्ष व समाजवाद शब्द इसकी प्रस्तावना में डालने का फैसला किया।
‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द इस आत्मविश्वास के साथ संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया कि संविधान के निर्माता कितने नासमझ थे, जिन्होंने इतनी महत्वपूर्ण बात पर ध्यान नहीं दिया। इस मुद्दे का दूसरा पक्ष यह भी है कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को कहीं परिभाषित नहीं किया गया और यह कोई मासूमियत भरी भूल नहीं थी। वस्तुत: यही वह अस्त्र है जिसके द्वारा ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘साम्प्रदायिक’ जैसे शब्दों को धार देकर काँटेदार चाबुक की तरह बनाया जाता रहा और फिर विरोधियों की पिटाई की जाती रही। भाजपा जैसे साम्प्रदायिक लांछित दलों को सत्ता में आने से रोकने के लिये छद्म धर्मनिरपेक्ष नेताओं द्वारा किए गए अदभुत त्याग का सबसे अच्छा उदाहरण झारखण्ड में वर्ष २००६ में देखने को मिला,जहाँ धर्मनिरपेक्षतावादियों ने मधु कोड़ा को मुख्यमन्त्री बनवा दिया,जो २ वर्ष में लगभग ४००० करोड़ लेकर चलते बने। छद्म धर्मनिरपेक्षता के लिये यह बहुत छोटी-सी कीमत है,क्योंकि इससे अधिक महंगे तो लालू यादव,संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा के नेता पड़े जो आज या तो भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में बन्द हैं,या न्यायालयों के तीर्थाटन को मजबूर। बर्तानवी शासन में शहीद होने के लिये प्राण गंवाने पड़ते थे,पर पिछले तीन दशकों में किसी शहीद होने की इच्छा होती तो वह बड़ी आसानी से साम्प्रदायिकता के नाम पर शहीद हो जाता। जब जी चाहा,जिसे जी चाहा उस पर साम्प्रदायिक होने का आरोप मढ़ दिया जाता,अब दूसरा झेलता रहे। कुलदीप नय्यर, खुशवंत सिंह जैसे छद्म धर्मनिरपेक्ष गौत्र वाले इनके जैसे लेखकों के कोई भी लेख होते, उनमें एक वाक्य अवश्य रहता था कि भाजपा व संघ साम्प्रदायिक हैं। इस आरोप को वे दो दूनी-चार की लय पर दोहराते, जिसके लिये कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। यह सारी गड़बड़ी इसीलिये होती रही कि साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों की प्रमाणित परिभाषाएं उपलब्ध नहीं हैं। इसी का लाभ उठाकर हमारे स्वयंभू बुद्धिजीवी और नेता अपने प्रियजनों को धर्मनिरपेक्षता के प्रमाण-पत्र बाँटते रहे और विरोधियों को साम्प्रदायिकता के चौखटे में मढ़ते रहे हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि,आज भी धर्मनिरपेक्ष बनाम साम्प्रदायिक मुद्दे की शहादत का खामियाजा उस भाजपा को चुकाना पड़ा है जो इसकी सबसे अधिक शिकार रही है। हाल ही में महाराष्ट्र में सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा व शिवसेना गठजोड़ को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ,परन्तु शायद मराठा राज्य में भाजपा का निरन्तर आगे बढ़ना उसकी सहयोगी दल शिव सेना को इसलिए रास नहीं आया कि अगर वह दल जो कभी राज्य में उसका अनुज था,आज ज्येष्ठ होने के बाद आगे पितामह बन गया तो मातोश्री निवास पर तो राजनीतिक तालाबन्दी हो सकती है। शिव सेना का यह भय अकारण नहीं,क्योंकि भाजपा ने २०१४ के विधानसभा चुनाव में जहां २६० सीटों पर लड़ते हुए ४७ प्रतिशत की विजयी दर से १२२ सीटों पर जीत हासिल की तो २०१९ में १४४ सीटों में से १०५ पर विजयश्री की पताका फहराई। भाजपा ने अपनी चुनावी विजय दर ४७ से बढ़ा कर ७४ प्रतिशत कर ली,जो शायद बड़े भाई का अहंकार पाले बैठी शिव सेना को फूटी आँख नहीं सुहाया। इसीलिए,शिव सेना तरह-तरह के बहाने बना कर भगवा वस्त्रों के साथ उन दलों की गोद में बैठ गई,जो अभी तक भगवाधारियों को भूत-पिशाच बताते रहे। देश में आए नए राजनीतिक व्यवहार का स्वागत है। बहुत सस्ता सौदा रहा,दो पैसे की हान्डी फूटी और फोड़ने वाले की जात पहचानी गई।

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