कुल पृष्ठ दर्शन : 148

राहुल गाँधी:दिवाली पर होली के गीत गाने का क्या मतलब?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

*****************************************************************

मोदी २.० कार्यकाल में दिल्ली में आयोजित कांग्रेस की पहली प्रभावी विरोध रैली ‘भारत बचाओ’ से ‘सावरकर हटाओ बनाम सावरकर बचाओ’ में कैसे और क्यों तब्दील हो गई,यह राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए रोचक विश्लेषण का विषय है। यह रैली देश में बढ़ती महंगाई,दम तोड़ती अर्थव्यवस्था,भारी बेरोजगारी जैसे जमीनी मुद्दों को लेकर आयोजित की गई थी। रैली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी,महासचिव प्रियंका गांधी तथा मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ आदि के भाषणों से लगा था कि पार्टी कुछ बुनियादी मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरना चाहती है,जिससे मोदी सरकार और भाजपा बचाव(बैक फुट) पर आने पर विवश हों,लेकिन इसी रैली में पूर्व अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी ने सावरकर का मुद्दा छेड़कर उन तमाम जरूरी मुद्दों को डस्टबिन में सरका दिया। राहुल के इस बयान कि वे माफी नहीं मांगेंगे,क्योंकि वे राहुल गांधी हैं, राहुल सावरकर नहीं,ने एक बेमौसम विवाद को हवा दे दी। इससे सबसे ज्यादा खुश भाजपा हुई तो उधर महाराष्ट्र में सावरकर की कट्टर समर्थक शिवसेना के साथ सरकार में बैठी कांग्रेस असहज हो गई। महाराष्ट्र के एक भी नेता का बयान अभी तक राहुल के समर्थन में नहीं आया है तो सरकार में एक और भागीदार एनसीपी के नेता शरद पवार ने राहुल के सावरकर वाले बयान पर प्रतिक्रिया देने से इंकार कर दिया। पन्द्रह दिन पुरानी गठबंधन सरकार में दरार का पहला बीज पड़ गया। उल्टे शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत ने डंके की चोट पर कहा कि राहुल गांधी के बयान से इतिहास नहीं बदलेगा और उन्‍हें सावरकर के बारे में पढ़ना चाहिए।
कांग्रेस की इस ‘भारत बचाओ’ रैली में राहुल का यह सावरकर विरोधी बयान अप्रत्याशित था या एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था,यह अभी स्पष्ट होना है। राहुल गांधी का यह बयान उनके द्वारा पूर्व में दिए ‘रेप इन इंडिया’ को लेकर भाजपा द्वारा उनसे क्षमायाचना की मांग के संदर्भ में था। उन्होंने कहा था ‍कि मोदी राज में भारत ‘मेक इन इंडिया’ की जगह ‘रेप इन इंडिया’ बन गया है। इस टिप्पणी के बाद भाजपा सांसदों ने दोनो सदनों में काफी हंगामा किया और राहुल गांधी से माफी मांगने की मांग की। राहुल ने माफी नहीं मांगी,पर अपने इस पक्ष को रैली में उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर के अंग्रेज सरकार को दिए माफीनामे से जोड़ने की कोशिश की। राहुल की बात सिद्धांत रूप में भले ठीक हो,लेकिन प्रासंगिक नहीं लगती। कारण कि सावरकर की माफी पुराना मुद्दा है। आज देश में जो जनसमस्याएं और जो राजनीतिक शैली प्रचलन में है,उसका सावरकर से क्या सम्बन्ध है,समझना मुश्किल है। उल्टे आजकल तो उन मुद्दों पर भी माफी नहीं मांगने का चलन है,जिन पर नैतिक आधार पर क्षमा याचना होनी चाहिए। कायदे से राहुल को नागरिक संशोधन विधेयक, एनआरसी अथवा आर्थिक मुददों पर मोदी सरकार को घेरना चाहिए था,पर उनका भाषण केवल अपनी सफाई या अडिगता पर केन्द्रित हो गया। परिणामस्वरूप महाराष्ट्र में सावरकर की कट्टर समर्थक शिवसेना के साथ सत्ता में भागीदार कांग्रेस मुश्किल में आ गई। भाजपा ने इसी बहाने शिवसेना की कमजोर नस को दबाना शुरू किया। हालांकि,शिवसेना ने कहा कि इस विवाद का उसकी विचारधारा और गठबंधन सरकार पर कोई असर नहीं होगा,किन्तु सावरकर तो शुरूआत है,आगे कौन-कौन से मुद्दे ‘सावरकर’ साबित होंगे,देखने की बात है।
सवाल यह है कि राहुल ने ऐसा क्यों कहा और सावरकर के बहाने भाजपा पर हमले का राजनीतिक नफा-नुकसान किसे और कितना होगा ? यह मुद्दा अभी उछालना राजनीतिक परिपक्वता का परिचायक है या अपरिपक्वता का ? यह सही मुद्दे को सही समय पर उठाने की चतुराई है या फिर बनते खेल को बिगाड़ने का बचकानापन ? यह तोप को सही निशाने पर दागने की दूरदर्शिता है या ऐनवक्त पर तोप का मुहाना दूसरी तरफ मोड़ देने की नादानी है ? इन सवालों पर गौर करना जरूरी है।
पहला मुद्दा सावरकर का-वीर सावरकर के नाम से महाराष्ट्र में सं‍बोधित किए जाने वाले सावरकर की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका,उनको मिली काले पानी की सजा,काले पानी से बाहर निकलने के लिए उनके द्वारा अंग्रेज सरकार को लिखा गया माफीनामा,भारत लौटने के बाद उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियां,हिंदुत्व के विचार को बौद्धिक आधार देने की पहल,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सावरकर के रिश्ते,गांधी हत्या में उनकी और उनके संगठन हिंदू महासभा की भूमिका आदि कई बातें हैं,जिन पर काफी-कुछ लिखा और कहा जा चुका है। यह सही है कि सावरकर ने काले पानी से छूटने के लिए (जहां दस साल तक कड़ी सजा काटी) के लिए दो बार माफीनामे‍ लिखे,लेकिन इन माफीनामों की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जाती रही है। एक वर्ग इसे पलायनवाद और सावरकर के ब्रिटिश एजेंट होने से जोड़ता है तो दूसरा वर्ग इस माफीनामे को सावरकर के ब्रिटिश विरोधी संघर्ष की रणनीति का एक हिस्सा मानता है। पहला वर्ग आजादी की लड़ाई में सावरकर की भूमिका को नकारात्मक मानता है तो दूसरा वर्ग सावरकर के संघर्ष और राष्ट्रप्रेम को असंदिग्ध मानता है। अर्थात सावरकर ने जो किया,जो जिया,जिस उद्देश्य से किया वह उनके दो माफीनामों पर कई गुना भारी है। सावरकर विरोधी यह भूल जाते हैं कि महाराष्ट्र में आम तौर पर सावरकर की छवि एक खांटी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की है। यही कारण है कि महाराष्ट्र में उनके विरोधी स्वर कभी मुखर नहीं हो सके हैं। कांग्रेस की भी इस मामले में भूमिका जनभावना को न छेड़ने की रही है। यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने तो १९७० में राष्ट्रवादी सावरकर की याद में २० पैसे का डाक टिकट भी जारी किया था। वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने भी कहा कि सावरकर के जीवन के दो पहलू हैं। पहला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का तो दूसरा माफीनामा देने वाले का। हम उनके पहले व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं। उधर भाजपा,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और शिवसेना तो सावरकर के इसलिए भी अहसानमंद हैं कि उनकी विचारधारा का बीज मंत्र ही सावरकर के हिंदू चिंतन में छिपा है और वह यह कि हिंदू वही है ‍जिसकी पुण्यभूमि हिंदुस्तान हो। एक अर्थ में ‘हिंदुत्व’ की यह मौलिक परिभाषा है। हालांकि,इस पर भी काफी विवाद है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सावरकर के रिश्ते बहुत सौहार्द के नहीं रहे। सावरकर का हिंदुत्व मूलत: बौद्धिक है,पोंगापंथ और ‘बाबा वाक्यम प्रमाणम्’ में उनका भरोसा नहीं था। इन सबके बावजूद अभी ऐसा कोई प्रसंग नहीं था कि सावरकर को बीच में लाया जाए। तो फिर राहुल ने अभी ऐसा क्यों कहा ? यह चर्चा थी कि राहुल महाराष्ट्र में कांग्रेस द्वारा साम्प्रदायिक शिवसेना के साथ सरकार बनाने पर सहमत नहीं थे। तो क्या राहुल का बयान उसी नाराजी की सार्वजनिक अभिव्यक्ति है,जिसका ‘औजार’ सावरकर बने ? क्योंकि जैसे ही यह बयान आया,शिवसेना ने तत्काल सावरकर में अपनी अडिग आस्था जाहिर कर दी। एनसीपी ने गोल-मोल बातें की तो कांग्रेस के प्रादेशिक नेता मौन ही रहे। उधर,जिस भाजपा और मोदी सरकार को घेरने के लिए कांग्रेस ने रैली की,वह रक्षात्मक होने की जगह सावरकर को लेकर कांग्रेस पर और आक्रामक हो गई। उसने राहुल पर तो जवाबी हमला किया ही,दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ सत्ता में बैठी शिवसेना को भी घेरा। सावरकर को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती भी कांग्रेस पर आक्रामक हुई। राजनीतिक चश्में से देखें तो इस मुद्दे को उठाने से कांग्रेस को घाटा होने की संभावना ही ज्यादा है,न कि नफा होने के,क्योंकि इससे भाजपा असल मुद्दों पर घिरने से साफ बच निकली है,जबकि महाराष्ट्र में कांग्रेस की गठबंधन सरकार दिक्कत में आ गई है। बड़ा और समझदार नेता वो है,जो जनता की नब्ज पकड़कर मुद्दों को उठाए,पकाए। दिवाली पर होली के गीत गाने का क्या मतलब?

Leave a Reply