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अष्टम अनुसूची की हिन्दी हित में पुनः समीक्षा अपेक्षित

ओम प्रकाश पांडेय
पटना (बिहार)
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विगत आधी सदी से भी कुछ अधिक अवधि से अवलोकन करता आ रहा हूँ कि क्षेत्रीय बोली के नाम पर अधिकतर व्यक्ति,कुछ से कुछ लिखते हुए गुणवत्ता के प्रति सचेत नहीं रहते हैं। फलतः अपेक्षित स्तर का प्रायः अभाव रहता है। विषय-वस्तु,भाव एवं भाषिक रूप से भी और,इसी लिए स्थानीय स्तर पर ही ऐसे लोग सिमट कर रह जाते हैं। कुछ कहने-बताने पर कुतर्क का सहारा लेने लग जाते हैं कि लोक भाषा है। क्या लोक भाषा में सामान्य बोल-चाल तथा साहित्य की भाषा में अन्तर नहीं होना चाहिए ? परिनिष्ठितता का कोई स्थान नहीं ? जिन लोगों ने साधना की चाहे,वह कोई भी क्षेत्रीय बोली रही अथवा खडी़ बोली हिन्दी;उन्हें पर्याप्त यश प्राप्त हुआ। डॉ.परमानन्द पाण्डेय,प्रो. हरिमोहन झा,नागार्जुन,रामेश्वर सिंह कश्यप इस बात के बहुत बड़े उदाहरण रहे। हिन्दी के उक्त महान् साधक,अंगिका, मैथिली और भोजपुरी की अनुपम पहचान बन कर अमर हो गए। क्षेत्रीय भाषाओं के साधकों को भी अवश्य ही सम्मान व पुरस्कार प्राप्त होना चाहिए, लेकिन यह भी सत्य ही कि बरगद के नीचे कोई अन्य पौधा पनप नहीं सकता। येन-केन-प्रकारेण,पौधा कोई पनप भी गया तो वह कुपोषण का शिकार हो ही जाता है।यों,प्रारम्भ से ही; सरकारी नीति बहुत स्वस्थ नहीं रही है। मत-कुर्सी-सत्ता की सताई हुई संस्कृति,संस्था एवं साहित्य के मध्य,किसी भी भाँति ये,अर्थात् संस्कृति,संस्था,साहित्य
जीवित बच रहे हैं तो साहित्यकार, संगीतकार,कलाकार की अपनी मेधा, क्षमता,लगन और राष्ट्रीय तथा नैतिक ईमानदारी के बल पर ही। वैसे,जो पत्र-पत्रिकाएं,नायक-नायिकाएं,गायक-गायिकाएं,निर्माता-निर्देशक के साथ-साथ नेतागण तक जो हिन्दी में आए,वे अधिक प्रसिद्ध हुए।
अनावश्यक को अष्टम अनुसूची तथा आवश्यक की उपेक्षा से असंतोष तो पनपेगा ही ना,नीति-नीयत बदलनी होगी। अष्टम अनुसूची की हिन्दी-हित में;पुनः समीक्षा हर हाल में अपेक्षित है। किसी के पक्ष या विपक्ष की बात नहीं कह रहा,वही कह रहा हूँ,जो तटस्थ भाव से एक भारत-भक्त को कहना चाहिए।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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