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आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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‘आत्मजा’ खंडकाव्य अध्याय-२०…….
कैसे कह दूँ आगन्तुक से,
मुझे नहीं यह रिश्ता भाया
मैं न अभी हो सका आधुनिक,
वही करूँ जो चलता आया।

आइएएस हों बेटा-बेटी,
तो दायित्व और बढ़ जाते
क्या वे उनके लिये करेंगे,
जो समाज से ही कट जाते।

नहीं मानते परम्परा को,
रीति-रिवाजों को ठुकराते
निहित स्वार्थ के लिये स्वयं पर,
बलि समाज की त्वरित चढ़ाते।

छिपे कलुष को बना आधुनिक,
ढोंग रचा कर प्रस्तुत करते
पावनता अक्षुण्य न जिनकी,
स्वांग प्यार का अदभुत भरते।

अवश्य दाल में है कुछ काला,
जो प्रस्ताव यहाँ ये लाये
स्वजातिय छोड़े सब रिश्ते,
जाने क्यों मेरे घर आये।

क्या है भेद समझना होगा,
क्या है अंशुमान की चाहत
अभी भला है चुप रह जाऊँ,
भले अतिथि का मन हो आहत।

यही सोचते चन्द्रभानु जी,
अति विनम्रता से कुछ बोले
हो करबद्ध दृष्टि कर नीचे,
हिले औंठ यों हौले-हौले।

स्वागतेय हैं अतिथि बंधु जो,
आप अकिंचन के घर आये
मानवता का रिश्ता पहला,
दूजे रिश्ते के सँग लाये।

समझ अभी स्वजनों को लूँ मैं,
तब आगे कुछ बात बढ़ाऊँ
होता बुरा जाति का बंधन ,
सबको उससे बाहर लाऊँ ।

स्वजन विरोध न करने पावें,
और न उनसे टूटे नाता
खुश होकर सब देवें स्वीकृति,
तो रिश्ता हो अति सुखदाता।

शीघ्र बताऊँगा मैं निर्णय,
समय दीजिये मुझको थोड़ा
यदि विधान है यह विधि का ही,
रोक न सकता कोई रोड़ा।

हम दो रिश्तों में बँध जावें,
कोई नया समाज बनावें
जो बँधन हैं हमें कष्टप्रद,
उनका अब जड़-मूल मिटावें।

यही चाहता हूँ मैं भाई,
रीति-रिवाज न हों दुखदायी
हम न स्वयं से खुशियाँ छीनें,
करें दुखों की त्वरित विदायी।

– किन्तु बदलना जन गण मन को ,
– होता भारी कार्य कठिन तर ,
– होती है जो सोच हमारी ,
– सबकी होती वही न अक्सर ।

यही विरोधाभास सदा से ,
रहा वेदना का है कारण ,
मिलें विचार हमारे तो हो ,
सभी दुखों का त्वरित निवारण ।

मन में कुछ आशाएँ लेकर,
बोले उनसे अतिथि दिवाकर ,
बंधु आज मैं धन्य हुआ हूँ,
उच्च विचार आपके सुन कर।

हम ही कर्ता-धर्ता अपने,
हमीं नियामक हम संचालक
हम चाकर नियमों के अपने,
एवं हम ही उनके पालक।

क्यों न बदल कर देखें हम ही,
क्यों न समाज नया रच डालें
परे रूढ़ियों के हम अपना,
नूतन एक विधान बना लें।

करें विचार आप दें निर्णय,
परिणय की बेला आ जाये
अंशुमान से मिले प्रभाती,
नया प्रकाश स्वयं छा जाये।

जितना चाहे समय आप लें,
जितनी चाहे करें मंत्रणा
हम दो के परिवार एक हों,
प्रभु से करता यही प्रार्थना॥

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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