कुल पृष्ठ दर्शन : 141

श्रीराम हैं न्यायप्रिय शासन व्यवस्था के महासूर्य

ललित गर्ग
दिल्ली

*******************************************************************

रामनवमी-२ अप्रैल विशेष…………
`रामनवमी` का त्यौहार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को उत्सवपूर्ण ढंग से मनाया जाता है। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार इस दिन मर्यादा-पुरूषोत्तम भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार त्रेतायुग में रावण के अत्याचारों को समाप्त करने तथा धर्म की स्थापना के लिए भगवान विष्णु ने मृत्यु लोक में श्री राम के रूप में अवतार लिया था। श्रीराम का जन्म रानी कौशल्या की कोख से राजा दशरथ के घर में हुआ था। भगवान श्रीराम अविनाशी परमात्मा है,जो सबके सृजनहार व पालनहार हैं। दरअसल,श्रीराम के लोकनायक चरित्र ने जाति,धर्म और संप्रदाय की संकीर्ण सीमाओं को लांघ कर जन-जन को अनुप्राणित किया। भारत में ही नहीं,दुनिया में श्रीराम अत्यंत पूज्यनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं। थाईलैंड,इंडोनेशिया आदि कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं। वे मानवीय आत्मा की विजय के प्रतीक महापुरुष हैं,जिन्होंने धर्म एवं सत्य की स्थापना करने के लिए अधर्म एवं अत्याचार को ललकारा। इस तरह वेे अंधेरों में उजालों,असत्य पर सत्य,बुराई पर अच्छाई के प्रतीक बने।
रामनवमी का पर्व धर्म की स्थापना एवं बुराइयों से संघर्ष का प्रतीक पर्व हैl आज भी अंधेरों से संघर्ष करने के लिए इस प्रेरक एवं प्रेरणादायी पर्व की संस्कृति को जीवंत बनाने की जरूरत है। प्रश्न है कौन इस संस्कृति को सुरक्षा दे ? कौन आदर्शों के अभ्युदय की अगवानी करे ? कौन जीवन-मूल्यों की प्रतिष्ठापना में अपना पहला नाम लिखवाए ? बहुत कठिन है यह बुराइयों से संघर्ष करने का सफर। बहुत कठिन है तेजस्विता की यह साधना। आखिर कैसे संघर्ष करें घर में छिपी बुराइयों से,जब घर-आँगन में रावण-ही-रावण पैदा हो रहे हो। हमें भगवान श्रीराम को अपना जीवन-आदर्श बनाना होगा,उनके संयम एवं मर्यादा के मूल्यों को जीवनशैली बनाना होगा।
श्रीराम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र,माता-पिता,यहां तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार,आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। श्रीराम रघुकुल में जन्मे थे,जिसकी परम्परा ‘प्रान जाहुं बरु बचनु न जाई’ की थी। श्रीराम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं,इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से पुकारा जाता है। हमारी संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं है जो श्रीराम के समान मर्यादित, धीर-वीर,न्यायप्रिय और प्रशांत हो।
वाल्मीकि के श्रीराम लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष हैं। उन्होंने लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध किया और लोक धर्म की पुनः स्थापना की,लेकिन वे नील गगन में दैदीप्यमान सूर्य के समान दाहक शक्ति से संपन्न,महासमुद्र की तरह गंभीर तथा पृथ्वी की तरह क्षमाशील भी हैं।
महाकवि भास,कालिदास और भवभूति श्रीराम का कुल रक्षक,आदर्श पुत्र,आदर्श पति,आदर्श पिता,धर्म-संस्थापक और आदर्श प्रजापालक राजा का चरित्र सामने रखते हैं। कालिदास ने रघुवंश में इक्ष्वाकु वंश का वर्णन किया तो भवभूति ने उत्तर रामचरितम् में अनेक मार्मिक प्रसंग जोड़े,लेकिन तुलसीदास ने श्रीराम के चरित्र का कोई प्रसंग नहीं छोड़ा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि श्रीराम कथा को संपूर्णता वास्तव में तुलसीदास ने ही प्रदान की है।
दरअसल,तुलसीदास ने श्रीराम के जीवन के कई प्रसंगों की व्याख्या करते हुए उनके ईश्वरत्व की ओर इशारा किया है। इसका अर्थ यह है कि तुलसी ने श्रीराम के चरित्र में दो परस्पर विरोधी और विपरीत धाराओं में समन्वय का प्रयास करके इसे और भव्यता प्रदान करने की कोशिश की है। श्रीराम सुख-दु:ख,पाप-पुण्य,धर्म-अधर्म,शुभ-अशुभ, कर्तव्य-अकर्तव्य,ज्ञान-विज्ञान,योग-भोग, स्थूल-सूक्ष्म,जड़-चेतन,माया-ब्रह्म,लौकिक-पारलौकिक आदि का सर्वत्र समन्वय करते हुए दिखाई देते हैं। इसलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही,लोकनायक एवं मानव चेतना के आदि पुरुष भी हैं। भारत के विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और मत-मतांतरों के प्रवर्तक संतों ने श्रीराम की अलग-अलग कल्पना की है। इनमें हर एक के श्रीराम अलग-अलग हैं। तुलसी,रैदास,नाभादास, गुरुनानक,कबीर आदि के श्रीराम अलग हैं। किसी के लिए श्रीराम दशरथ पुत्र हैं तो किसी के लिए सबसे न्यारे एवं न्यायप्रिय शासक हैं। तुलसीदास ने यह भी कहा कि ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिहिं तैसी।’
भारत की संस्कृति एवं संस्कारों में दो अक्षरों का एक राम-नाम गहरा पेठा एवं समाया हुआ है। सुबह बिस्तर से उठते ही राम। बाहर निकलते ही राम-राम,दिन भर राम नाम की अटूट श्रृंखला। फिर शाम को राम का नाम और जीवन की अंतिम यात्रा भी ‘राम नाम सत्य है’ के साथ। आखिर इसका रहस्य क्या है ? शायद यही देख कर अल्लामा इकबाल को लिखना पड़ा-‘है राम के वजूद पर हिन्दोस्तां को नाज,अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद।’ सचमुच श्रीराम भारत के जन-जन के लिये एक संबल है,एक समाधान है,एक आश्वासन है,निष्कंटक जीवन का, अंधेरों में उजालों का।
भारत की संस्कृति एवं परिवार परम्परा में हर माता-पिता श्रीराम जैसे पुत्र की कामना करते हैं।
श्रीराम के पिता दशरथ ने उनकी सौतेली माता कैकेयी को उनकी किन्हीं दो इच्छाओं को पूरा करने का वचन-वर दिया था। कैकेयी ने दासी मन्थरा के बहकावे में आकर इन वरों के रूप में राजा दशरथ से अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन और श्रीराम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा। पिता के वचन की रक्षा के लिए श्रीराम ने खुशी से वनवास स्वीकार किया।
जब श्रीराम वनवासी थे,तभी उनकी पत्नी सीता को रावण हरण कर ले गया। जंगल में श्रीराम को हनुमान जैसा मित्र और भक्त मिला जिसने श्रीराम के सारे कार्य पूरे कराये। श्रीराम ने हनुमान, सुग्रीव आदि वानर जाति के महापुरुषों की सहायता से सीता को ढूंढा। श्रीराम न्यायप्रिय थे। उन्होंने बहुत अच्छा शासन किया,इसलिए लोग आज भी अच्छे शासन को रामराज्य की उपमा देते हैं। इनके दो पुत्रों कुश व लव ने इनके राज्यों को संभाला। वैदिक धर्म के कई त्योहार,जैसे दशहरा,रामनवमी और दीपावली श्रीराम की वन-कथा से जुड़े हुए हैं।
श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन विलक्षणताओं एवं विशेषताओं से ओतप्रोत है,प्रेरणादायी है। उनके मन में विमाता कैकयी और भाई भरत के लिए स्नेह बना रहता है। उनका हृदय करुणा से ओत-प्रोत है। वे जब रावण का वध करते हैं तो पश्चाताप करते हैं। लौकिक जीवन की मर्यादा एवं राजधर्म के निर्वाह के लिए धोबी के ताने सुनकर सीता का परित्याग कर देते हैं। उन्हें अपने जीवन की खुशियों से बढ़कर लोक जीवन की चिंता है। राजा के इस आदर्श के कारण ही भारत में रामराज की आज तक कल्पना की जाती है। श्रीराम के बिना भारतीय समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है ?

Leave a Reply