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श्रेष्ठ अभिनेता रजनीकांत और फाल्के पुरस्कार की घोषणा का ‘संयोग’…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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सवाल भारतीय फिल्म उद्योग और खासकर दक्षिण फिल्म उद्योग के चेहरे रजनीकांत को वर्ष २०१९ का प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के पुरस्कार देने की घोषणा पर नहीं है,लेकिन उस ‘संयोग’पर जरूर है,जो आजकल राजनीति में बहुत ज्यादा ‘घटित’ हो रहा है। महानायक-कामयाब अभिनेता रजनीकांत की अपार लोकप्रियता,उनकी खास तरह की संवाद अदायगी और अभिनय का चमत्कारिक अंदाज, उनकी परोपकारिता,अपने अतीत को सदा याद रखने और करिश्माई शख्सियत के बावजूद सियासत की दुनिया में कदम रखने की हिचक जैसी कई बातें उन्हें असाधारण बनाती हैं। व्यावसायिक सिनेमा में अन्यतम और दीर्घावधि योगदान के लिए रजनीकांत को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए चुना जाना प्रत्याशित ही था। जिस मण्डल ने उनका नाम का चुनाव किया,उनमें आशा भोसले जैसी हस्तियां शामिल थीं,लेकिन पुरस्कार का ऐलान ६ अप्रैल के बाद भी हो सकता था, क्योंकि इस दिन रजनीकांत के गृह राज्य तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान है। किसी पत्रकार ने इस ‘संयोग’ को लेकर केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर से सवाल किया तो वो भड़क गए,जबकि भड़कने जैसा कुछ नहीं था।
एक निम्न मध्यमवर्गीय मराठा परिवार में जन्मे रजनीकांत का बस चालक से सिने उद्योग का सितारा बनने की कहानी भी कुछ परी कथा-सी है। बंगलुरू में एक बस चालक में अभिनय प्रतिभा की खोज उनके सहयोगी बस चालक ने खोजी और एक तमिल फिल्म निर्माता ने रजनीकांत को अपनी फिल्म में मौका भी दे दिया। चाकलेटी चेहरा न होने के बावजूद रजनीकांत ने अपनी जबर्दस्त अभिनयता से साबित कर दिया कि दक्षिण के फिल्माकाश पर नया सूरज उदित हो चुका है।
रजनीकांत अपनी कई फिल्मों में ‘लार्जर देन लाइफ’ महानायक (बचाने वाला) की तरह नजर आते हैं। उनकी पंचलाइनें प्रशंसकों को दीवाना बना देती हैं। उनकी कुछ हिंदी फिल्मों के चंद सफल संवाद-‘मैं शक की बुनियाद पर केस का पन्ना खोलता हूँ..और यकीन में बदलकर बंद कर देता हूँ( फिल्म ‘फूल बने अंगारे)। किसी भी चीज की कामयाबी में साथ तो बहुत लोग देते हैं, लेकिन उसकी वजह बताता है एक दुश्मन (‘लिंगा’)। मौत से जिंदा लौटने का अलग ही मजा है (‘२.०’)। मैं दिखता एक इंसान हूँ पर हूँ एक मशीन (‘रोबोट’)।
यह भी रजनीकांत की महानता है कि उन्होंने यह पुरस्कार अपने पुराने बस चालक साथी राजबहादुर और अपने पहले फिल्म निर्देशक स्व. के.बालाचंदर को समर्पित‍ किया।
तमिलनाडु में तो रजनीकांत को उनके प्रशंसक ‘भगवान’ मानते हैं। आदर से उन्हें ‘थलाइवा’ (नेता) का कहा जाता है। वो देश के सर्वाधिक महंगे फिल्मी अभिनेता में से हैं। २०१९ में रजनीकांत ने एक फिल्म में काम करने की फीस ८१ करोड़ रू. लेकर नया रिकाॅर्ड बनाया था। अपनी कमाई में से वो कई सामाजिक कार्यों के लिए भी भरपूर मदद देते हैं। लिहाजा रजनीकांत की लोकप्रियता का क्षितिज बहुत व्यापक है। संभवत: इसी कारण से बीते ३ साल से वो राजनीति के दलदल में कदम रखने की हिम्मत जुटा रहे थे। उन्होंने एक संगठन भी बना लिया था,लेकिन ऐनवक्त पर पैर पीछे खींच लिए।
रजनीकांत को अपनी अलग संवाद अदायगी के साथ बेबाक राजनीतिक वक्तव्यों के लिए भी जाना जाता है। उनके बयानों और गति‍विधियों में कई बार भाजपा और उसकी विचारधारा से नजदीकियां देखी गईं। एक बारगी यह मान लिया गया था कि रजनीकांत या तो भाजपा में शामिल होंगे या फिर कोई नया दल बनाकर भाजपा से गठबंधन करेंगे।
जहां तक रजनीकांत को सिने उद्योग का यह सबसे बड़ा पुरस्कार देने की बात है तो इसके लिए वो सर्वथा पात्र हैं,क्योंकि रजनीकांत ने अपनी अभिनय की अलग शैली तथा अदाकारी की नई शैली को विकसित किया और उसे इस कदर लोकप्रिय बनाया कि वह ‘रजनीकांत स्टाइल’ के नाम से मशहूर हो गया। उनके अभिनय में चेहरे के भावों के साथ चमत्कृत करने वाली शारीरिक अदाएं भी होती हैं,जिससे रजनीकांत की यह छवि बनी कि वो ‘कुछ भी’ कर सकते हैं। अर्थात असंभव क। उनकी तुलना बाॅलीवुड के २०वीं सदी के महानायक अमिताभ बच्चन से भी की जाती है।
उधर,तमिलनाडु में भारतीय जनता पार्टी रजनीकांत में अपनी राजनीतिक संभावनाएं ढूंढती रही है। उसे उम्मीद थी कि रामकृष्ण मिशन विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने वाले और भारतीय संस्कारों को तरजीह देने वाले रजनीकांत भाजपा में आते हैं या उसके साथ सियासी समझौता करते हैं तो द्रविड राजनीति के २ कोणों के बीच एक हिंदूवादी कोण भी खड़ा किया जा सकता है,लेकिन इसी अति आशावाद को रजनीकांत ने शायद अपनी सीमाओंं के रूप में देखा। पहला कारण तो यह कि रजनीकांत भले खुद को ‘तमिल’ मानने लगे हों,लेकिन वो मूलत: गैर तमिल यानी मराठा हैं। वो सक्रिय राजनीति में आते तो उन पर पहला वार ‘गैर द्रविड़’ के रूप में होता। दूसरे,अपने ‘अति मानव’ की जो छवि रजनीकांत ने खुद गढ़ी है,उसके राजनीतिक दांव-पेंचों और चुनावी हार-जीत से ध्वस्त होने का खतरा भी था। आखिर चमत्कारिक अभिनय और राजनीतिक चमत्कार बिल्कुल अलग-अलग बाते हैं और तकाजे भी भिन्न हैं। इन दोनों में संतुलन बिरले ही बिठा पाते हैं,उनमें से एक बड़ा चेहरा अम्मा जयललिता थीं।
जाहिर है कि रजनीकांत को अपने राजनीतिक करिश्मे पर पूरा आत्मविश्वास नहीं होगा,इसलिए उन्होंने सियासी अखाड़े में खम ठोंकने से कदम पीछे खींच लिए,पर भाजपा को शायद अभी भी उम्मीद है कि रजनीकांत का नाम भी कुछ कमाल तो कर ही सकता है। तमिलनाडु में भाजपा इस चुनाव में अन्नाद्रमुक गठबंधन में है और २० सीटों पर चुनाव लड़ रही है। रजनीकांत को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार देने से यह सकारात्मक संदेश तो तमिलों में जा ही सकता है कि मोदी सरकार और देश तमिलनाडु की प्रतिभाओं का सम्मान करने में कहीं भी पीछे नहीं है। हालांकि,यह पुरस्कार राज्य में भाजपा को पिछले विधानसभा चुनाव में मिले मात्र २.४१ प्रतिशत मतों में कितना इजाफा कर पाएगा, यह देखने की बात है,किन्तु दल को उम्मीद है कि एआईएडीएमके का पल्ला पकड़ कर वह राज्य में अपनी उल्लेखनीय मौजूदगी दर्ज करा सकती है।
इधर पत्रकारों की परेशानी यह है कि वो सवाल पूछें तो मुश्किल और न पूछें तो भी मुश्किल। रजनीकांत को फाल्के पुरस्कार को लेकर जो भौंहें तनी हैं,उसकी वजह भी समय है। वैसे भी विवाद और संयोग रजनीकांत के व्यक्तित्व के साथ नत्थी रहे हैं। पहला विवाद तो उनके ‘द्रविड़’ होने पर ही है। रजनीकांत समुदाय के तौर पर राज्य के उस तंजावुर मराठा समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं,जो तमिलनाडु की कुल जनसंख्या का महज ०.१ फीसदी है। ये लोग तमिल मिश्रित तंजावुर मराठी बोलते हैं। रजनीकांत की माँ के नाम के नाम पर भी विवाद रहा है। कुछ का कहना है कि उनका नाम रमाबाई तो कुछ के अनुसार वो जीजाबाई थीं। यहां तक रजनीकांत के उपनाम गायकवाड़ की स्पेलिंग भी लोग अपनी सुविधा से लिखते हैं। रही बात ‘संयोग’ की तो राजनीतिक फलक पर यह आजकल बहुत ज्यादा होने लगा है। जब १९७५ में रजनी‍कांत का सिने जगत में प्रवेश हुआ था,तब बाॅलीवुड पर अमिताभ बच्चन की कीर्ति पताका लहरा रही थी। लिहाजा यह भी ‘संयोग’ है कि अमिताभ के बाद रजनी‍कांत को ही ‘दादा साहेब फाल्के’ पुरस्कार मिला है। फाल्के पुरस्कारों की घोषणा हर साल अमूमन मार्च या अप्रैल में की जाती रही है। इस दफा भी घोषणा अप्रैल में ही हुई है। ‘संयोग’ सिर्फ इतना है कि घोषणा के ५ दिन बाद तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव के लिए मत पड़ने हैं। सो घोषणा में ‘छिपा संदेश’ भी ‘संयोग’ ही है। इसके पहले पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी का बांगला देश दौरा भी ‘संयोग’ ही था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी का कामाख्या मंदिर में मत्था टेकना भी ‘संयोग’ है और दिल्ली में केजरीवाल सरकार का ‘देशभक्ति बजट’ भी संयोग ही है। साम्प्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए वामपंथियों का बंगाल में आईएसएफ जैसे फिरकाई दलों से गठबंधन भी ‘संयोग’ है और मतदान के कुछ दिन पहले ममता दीदी के पैर में प्लास्टर बंधना भी ‘संयोग’ ही है। ऐसे में जब संयोगों की बाढ़ आई हुई हो तो चमत्कारिक अभिनय के बादशाह रजनी‍कांत को चलते चुनाव के बीच फाल्के सम्मान से नवाजा जाना भी ‘सुखद’ और ‘सुचिंतित संयोग’ नहीं तो और क्या है ? उन्हें बधाई तो बनती ही है…!

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