डॉ.सत्यवान सौरभ
हिसार (हरियाणा)
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चूस रहे मजलूम को,मिलकर पुलिस-वकील,
हाकिम भी सुनते नहीं,सच की सही अपील।
जर्जर कश्ती हो गई,अंधे खेवनहार,
खतरे में ‘सौरभ’ दिखे,जाना सागर पार।
थोड़ा-सा जो कद बढ़ा,भूल गए वो जात,
झुग्गी कहती महल से,तेरी क्या औकात।
बूढ़े घर में कैद हैं,पूछ रहे न हाल,
बचा-खुचा खाना मिले,जीवन है बेहाल।
हत्या-चोरी लूट से,कांपे रोज समाज,
रक्त रंगे अखबार हम,देख रहे हैं आज।
किसे सुनाएँ वेदना,जोड़ें किससे आस,
नहीं खून को खून का,सौरभ जब अहसास।
आकर बसे पड़ोस में,ये कैसे अनजान,
दरवाजे सब बंद हैं,बैठक है वीरान॥