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नए जमाने की सबसे ‘कड़ी’ सजा `इंटरनेटबंदी`

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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इक्कीसवीं सदी की नई सजाओं में एक `इंटरनेटबंदी` भी है। चाहे सुरक्षा कारणों से हो या पूरे समाज को ‘कायदे’ में रखने के लिए हो,हमारे देश में आजकल सरकारें सबसे पहले इंटरनेट बंद करती हैं। दो दिन पहले जब करगिल में १४५ दिनों बाद इंटरनेट सेवाएं फिर जिंदा हुईं,तो वहां के लोगों की खुशी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि,पिछले हफ्ते जब भोपाल में सुरक्षा के मद्देनजर कुछ घंटों के लिए प्रशासन ने इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी थी,तो हाहाकार-सा मच गया था। अमूमन हर दूसरे आदमी के माथे पर चिंता की लकीरें थीं कि क्या होगा,कैसे होगा,कब होगा ? गोया पूरी जिंदगी ही इंटरनेट की गुलाम हो गई हो। चंद मिनटों के लिए इंटरनेट का बाधित हो जाना भी लोगों को उतना ही बेकल कर देता है,जितना किसी माँ की आँखों से उसके बच्चे का ओझल हो जाना। इंटरनेट हमारी जिंदगी में इतने गहरे तक घुसपैठ कर चुका है कि बगैर इसके जीना भी कल्पनातीत होता जा रहा है। जहां एक तरफ इंटरनेट ने जिंदगी को आसान किया है,वहीं दूसरी तरफ जीवन में कई नई उलझनें भी पैदा कर दी हैं। यह सोचना भी डरावना है कि,आने वाले वक्त में इंटरनेट आश्रित समाज कैसा होगा,मनुष्य की उसमें क्या हैसियत होगी,समाज खंड-खंड होगा या बिल्कुल नए किस्म का समाज आकार लेगा,जिसकी अभी हम कल्पना ही कर सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में धारा ३७० हटने के बाद कश्मीरी किसी बात से सबसे ज्यादा परेशान हैं,तो वह है इंटरनेट का बंद होना। नेट के जरिए मिलने वाला एक `ओटीपी` भी कश्मीरियों के लिए कारूं का खजाना मिलने जैसा है। उत्तरप्रदेश में भी पिछले दिनों जब सीएए-एनआरसी के खिलाफ हिंसक प्रदर्शन के बाद ११ जिलों में इंटरनेट बंद कर दिया गया था,तो सभी लोग परेशान हो उठे थे। चूं‍कि,अब सरकार और पूरी व्यवस्था का सारा जोर डिजीटलाइजेशन पर रहा है,इसलिए मनुष्य द्वारा किए जाने वाले तमाम काम अब कम्प्यूटर के हाथों में चले गए हैं और कम्प्यूटर की आत्मा इंटरनेट ही है। हिसाब-किताब हो,पढ़ाई हो,परीक्षा हो,कारोबार हो,बैंकिंग हो,सब की डोर अब इंटरनेट से बंधी है। हमारे देश में इंटरनेट आए २५ साल ही हुए हों,लेकिन दुनिया में इसे आए हुए ५० साल हो गए हैं। विश्व में इंटरनेट के जरिए पहला संदेश अमेरिका की कैलिफोर्निया और लास एंजेल्स यूनिवर्सिटी से स्टैनफोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट को २९ अक्टूबर १९६९ को भेजा गया था। यह संदेश एक शब्द का था-‘लॉ’ यानी ‘लॉगिन` लेकिन यह संदेश भी बीच में ही नष्ट(क्रेश)हो गया था। जिस इंटरकनेक्टेड कम्प्यूटर नेटवर्क से यह संदेश भेजा गया था,उसे `एरपानेट` कहते थे। इसे हम आज के इंटरनेट का पूर्वज कह सकते हैं। भारत में विदेश संचार निगम ने १५ अगस्त १९९५ को जब देश में पहली बार इंटरनेट शुरू किया था,तब किसी ने इसका ज्यादा ध्यान (नोटिस)नहीं लिया था। तब देश आर्थिक उदारीकरण के किंतु-परंतु,कम्प्यूटरीकरण उचित है या अनुचित,मंदिर-‍मस्जिद विवाद और ओबीसी आरक्षण जैसे मुद्दों में उलझा हुआ था। १९९८ में इंटरनेट के निजीकरण ने देश में संचार क्रांति की तस्वीर बदलना शुरू की। इंटरनेट मानो देवदूत बनकर आया। कम्प्यूटरीकरण को नए पंख लगे। मोबाइल क्रांति ने इसे और हवा दी। आज आलम यह है कि इंटरनेट के बगैर जिंदगी की कल्पना भी कठिन है। हममें से बहुत कम ने सोचा होगा कि कश्मीर और लद्दाख के लोगों ने बगैर इंटरनेट के डेढ़ सौ दिन कैसे गुजारे होंगे,या गुजार रहे हैं। अगर किन्हीं कारणों से यह स्थिति देश के बाकी हिस्से में बने तो क्या होगा ? यकीनन इंटरनेट अब ‘नेट’ के रूप में हमारी जिंदगी का हमकदम बन गया है। संचार और सम्प्रेषण के हर तौर-तरीके पर उसका कब्जा है। चिट्ठियां लिखना और भेजना नेट जनरेशन के लिए तो मानो इतिहास की वस्तु है। `पोस्टकार्ड` जैसा शब्द शब्दकोश से बाहर हो चुका है। `प‍त्र-लेखन` कला भी ‘ऐतिहासिक’ हो चुकी है। संदेश और भावनाओं का सम्प्रेषण अब ऐसे दौर में आ चुका है कि मानो संवेदनाओं के रसगुल्ले मशीनीकरण की चाशनी में डुबोकर निकाले गए हों। अब आगे क्या होने वाला है,किस रूप में होने वाला है,भविष्य का इंटरनेटी समाज कैसा होगा,इन सवालों के बारे में समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक काफी-कुछ सोच रहे हैं। युवा पीढ़ी के बीच पिछले दिनों हुए सर्वे में सामने आया कि आज ‘ऑफ लाइन’ होना युवाओं के लिए न सिर्फ सबसे बड़ी आपदा है,बल्कि वे इसकी कल्पना भी नहीं करना चाहते। वे हर घड़ी ‘ऑनलाइन’ ही रहना चाहते हैं। उसी में डूबे रहना चाहते हैं। हर पल मोबाइल पर चलती उंगलियां,लैपटॉप या डेस्कटॉप पर घूमता कर्सर इस बात का संकेत है कि,व्यक्ति समाज से छिटककर ज्यादा से ज्यादा आत्मकेन्द्रित,उथला और सतही सूचनाओं पर आश्रित होता जा रहा है। इसके अलावा नेट जनरेशन जिस रोग को जी रही है,वह है मनोवैज्ञनिक भय। मोबाइल खो जाने,बंद हो जाने,नेट चले जाने,व्हाट्सएप रूक जाने का मनोवैज्ञानिक भय उन्हें हर पल एक आंशका में जीने को बाध्य करता है। वे सतत संसूचित होते हुए भी स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं। लगता है कहीं कुछ अशुभ तो नहीं घटा। सवाल यह है कि यह डिजीटल दुनिया आने वाले समय में कैसी होगी ? अमेरिका के प्यू रिसर्च सेन्टर ने इस बारे में सर्वे किया था। जो जवाब मिले,वो आँखें खोलने वाले हैं। मसलन हमारा भविष्य वास्तविक और आभासी दुनिया का मिश्रण होगा। की-बोर्ड(कुंजी पटल),माउस,स्क्रीन(पर्दा)जैसे शब्द इतिहास में तब्दील होंगे। अंकरूपण संदेश(टाइप मैसेज)का जमाना खत्म होगा। कम्प्यूटर आपकी आवाज से चलेंगे। वेब की दुनिया वास्तविक दुनिया में बदल जाएगी। सूचनाएं हवा में तैरेंगी। नई भाषाएं सीखने की जहमत उठाने की जगह आपको केवल ट्रांसलेशन एप डाउनलोड करना होगा। हमारा पूरा ज्ञान इकोसिस्टम ऑनलाइन होगा। भविष्य में झांकने वाले विशेषज्ञ इंटरनेट की वर्तमान अवस्‍था को नेट की किशोरावस्था मानते हैं। आने वाली पीढ़ी हाइपर कनेक्टिविटी से जुड़ी होगी,लेकिन इससे भी बढ़कर सवाल यह है कि भविष्य के नेट युग में इंसान से इंसान का रिश्ता कैसा होगा ? क्या प्रेम भी आभासी होगा ? क्या सुख-दु:ख भी नेट सिग्नलों से संचालित होंगे ? संवेदनाएं कम्प्यूटर से नियंत्रित होंगी ? मानवीयता क्या रूप धारण करेगी ? बचेगी भी या नहीं ? नेटग्रस्त पीढ़ी को बरगलाना या समझाना कितना आसान या दूभर होगा ? आज हम जो देख रहे हैं,वह इस बात का प्रमाण है कि जिंदगी हद से ज्यादा ऑनलाइन होती जा रही है। संचार क्रांति जितना हमें वैश्विक बना रही है,उससे ज्यादा आत्मकेन्द्रित और असंवेदनशील बना रही है। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि,लोग पीडि़त को बचाने के बजाए उसका वीडियो बनाने और उसे यथाशीघ्र सोशल मीडिया पर प्रदर्शित करने में ज्यादा रस लेते हैं। आत्म प्रचार का जुनून मूर्खता की हदों को पार करने लगा है। भविष्य में यह कौन-सी शक्ल लेगा,कहना कठिन है। ध्यान रहे कि इंटरनेट मनुष्य सभ्यता के लिए सहारे की लाठी के रूप में अवतरित हुआ था,पर अब वही मनुष्यता के सिर पर लाठी में तब्दील होता लग रहा है। इस बात को समझने के लिए किसी ऑनलाइन भविष्यवक्ता की जरूरत नहीं है।

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