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यूँ ही नहीं बन जाती कविता

सुलोचना परमार ‘उत्तरांचली
देहरादून( उत्तराखंड)
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जब मन के भाव उमड़ते हैं,
दर्द दिलों के छलकते हैं
कलम हाथ में आ जाती है,
कागज़ की कोरी छाती पर
अश्रु कणों की स्याही से ही,
तब बन पाती मेरी कविता।
यूँ ही नहीं बन जाती कविता…

मिलना-बिछुड़ना यहां,
सब संयोग से होता है
कर्मों की गठरी सिर पर,
जीवन भर वो ढोता है
जब दिल के छाले रिसते हैं,
तब बन पाती मेरी कविता।
यूँ ही नहीं…

देश प्रेम का ढोंग रचाकर,
करें देश से जो गद्दारी
खून खोलता तब है मेरा,
जब ढीठ पने से करें मक्कारी
देश प्रेम जज़्बातों संग ही,
तब बन पाती मेरी कविता।
यूँ ही नहीं…

जिनके लिए जीवन भर जूझी,
अब भी मरती-खपती हूँ
शब्दों के बाणों से उनके,
हरदम घायल होती हूँ
माँ हूँ,हर घूंट खून के पीती हूँ।
तब बन पाती मेरी कविता,
यूँ ही नहीं…॥

परिचय: सुलोचना परमार का साहित्यिक उपनाम ‘उत्तरांचली’ है,जिनका जन्म १२ दिसम्बर १९४६ में श्रीनगर गढ़वाल में हुआ है। आप सेवानिवृत प्रधानाचार्या हैं। उत्तराखंड राज्य के देहरादून की निवासी श्रीमती परमार की शिक्षा स्नातकोत्तर है। आपकी लेखन विधा कविता,गीत, कहानी और ग़ज़ल है। हिंदी से प्रेम रखने वाली `उत्तरांचली` गढ़वाली भाषा में भी सक्रिय लेखन करती हैं। आपकी उपलब्धि में वर्ष २००६ में शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय सम्मान,राज्य स्तर पर सांस्कृतिक सम्मान,महिमा साहित्य रत्न-२०१६ सहित साहित्य भूषण सम्मान तथा विभिन्न श्रवण कैसेट्स में गीत संग्रहित होना है। आपकी रचनाएं कई पत्र-पत्रिकाओं में विविध विधा में प्रकाशित हुई हैं तो चैनल व आकाशवाणी से भी काव्य पाठ,वार्ता व साक्षात्कार प्रसारित हुए हैं। हिंदी एवं गढ़वाली में आपके ६ काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही कवि सम्मेलनों में राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर शामिल होती रहती हैं। आपका कार्यक्षेत्र अब लेखन व सामाजिक सहभागिता हैL साथ ही सामाजिक गतिविधि में सेवी और साहित्यिक संस्थाओं के साथ जुड़कर कार्यरत हैं।

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