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कल,आज और कल

संजय जैन 
मुम्बई(महाराष्ट्र)

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एक वो जमाना था,
जिसमें आदर सत्कार था।
एक ये जमाना है,
जिसमें कुछ नहीं बचा।
दोनों जमाने में यारों,
अन्तर बहुत है।
इसलिए तो घरों में,
अब संस्कार नहीं बचेll

माँ-बाप छ: बच्चों का,
पालन-पोषण कर देते थे।
और छ: बच्चे मिलकर,
माँ-बाप को नहीं रख पाते।
उन्हें वृद्धाश्रम में छोड़कर,
अपना फर्ज निभाते हैं।
और फिर भी पुत्र,
उन्हीं के कहलाते हैंll

यही काम माँ-बाप ने,
बच्चों के साथ किया होता।
और ऐश करने के लिए,
तुमसे मुँह मोड़ लेते।
और छोड़कर पालनाघर में,
अपना फर्ज निभाते।
तो क्या आज तुम,
इस मुकाम पर पहुंच पातेll

कितना सोच का अंतर,
तब अब में हो गया।
रिश्तों में भी मिठास,
अब वो कहाँ बची।
ये सब-कुछ आज की,
चकाचौंध का असर है।
इसलिए बच्चे माँ-बाप को,
अपने से दूर कर रहे हैंll

हमें अब दिखने लगा है,
दायित्वों-कर्तव्यों का अंतर।
इसलिए तो खुद के बच्चों को,
भी आया पाल रही है।
तो फिर कैसे दिल में रहेगा,
माँ-बाप के लिए अपनापन।
इसलिए तो बड़े-बूढ़े कह गए,
जो बोया है,वही तो काटोगे।
और खुद को भी आश्रम में,
अपने माँ-बाप की तरह पाओगेll

परिचय–संजय जैन बीना (जिला सागर, मध्यप्रदेश) के रहने वाले हैं। वर्तमान में मुम्बई में कार्यरत हैं। आपकी जन्म तारीख १९ नवम्बर १९६५ और जन्मस्थल भी बीना ही है। करीब २५ साल से बम्बई में निजी संस्थान में व्यवसायिक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं। आपकी शिक्षा वाणिज्य में स्नातकोत्तर के साथ ही निर्यात प्रबंधन की भी शैक्षणिक योग्यता है। संजय जैन को बचपन से ही लिखना-पढ़ने का बहुत शौक था,इसलिए लेखन में सक्रिय हैं। आपकी रचनाएं बहुत सारे अखबारों-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। अपनी लेखनी का कमाल कई मंचों पर भी दिखाने के करण कई सामाजिक संस्थाओं द्वारा इनको सम्मानित किया जा चुका है। मुम्बई के एक प्रसिद्ध अखबार में ब्लॉग भी लिखते हैं। लिखने के शौक के कारण आप सामाजिक गतिविधियों और संस्थाओं में भी हमेशा सक्रिय हैं। लिखने का उद्देश्य मन का शौक और हिंदी को प्रचारित करना है।

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