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मैंने सोचा कि,मेरी भी ज़िम्मेदारी है…

मयंक वर्मा ‘निमिशाम्’ 
गाजियाबाद(उत्तर प्रदेश)

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मेरे पिता जी की साईकल स्पर्धा विशेष…..


“क्या,नाम क्या है तुम्हारा ?” गौरव ने पूछा।
“अरे साब,बाहेर देस के लगते हो। यहां हम जैसों का नाम नहीं पूछता कोई। सब ए कबाड़ी,ओ कबाड़ी वाले,बस ये ही बोलते हैं। वैसे कहते हैं मेरे बाबूजी ने ‘राजा’ नाम रखा था। अब देखो किस्मत,ये राजा घरों से कबाड़ उठा रहा है। आप बताइए क्या देना है।”
“देखो ये सब है।”
राजा ने नज़र दौड़ाई तो काफ़ी सामान बिखरा पड़ा था।
“क्या साब,सब बेच के जा रहे हो क्या ?”
“अपने काम से मतलब रखो। लेना है तो बताओ और हाँ,दाम एकदम सही लगाना। लोहा,प्लास्टिक,किताबें सब है। सबका अलग-अलग बताना।” कहकर गौरव भी सामान टटोलने लगा।
टि.. न…
टि.. न…
ट्रिन..
ट्रिन-ट्रिन…
“क्या साब जी। कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जंग खा गई है ये भी। वैसे कितने साल पुरानी होगी ?” राजा बोला।
कितने साल ? कभी सोचा ही नहीं,कितने साल। गौरव सोच में पड़ गया और मन-ही-मन बोला “मेरे बचपन की याद जहां तक जाती है,मैंने तो हमेशा ही पिताजी को इस साईकिल पर देखा।”
रोज़ शाम को ट्रिन-ट्रिन करती वो घंटी की आवाज़,जो मद्धम से तीव्र होती घर तक आती थी। साथ ही झोला लटकाए,सफ़ेद कुर्ते और धोती में बड़ी मूछों वाले रौबदार पिताजी। घंटी की आवाज़ सुनते ही मैं दौड़ा आता था। आते ही पहले झोला माँ को पकड़ाते और मुझे साईकिल के डंडे पर लगी मेरी छोटी-सी सीट पर बिठाकर गाँव का एक चक्कर लगाते। “राम-राम मास्टर जी। कैसे हैं मास्टर साब ? शाम की सवारी निकल पड़ी मास्टर साब।..” और न जाने क्या-क्या! जहां से हम निकलते हर किसी को कुछ-न-कुछ बोलना ही होता था। पिताजी भी एक हाथ उठा कर या सिर झुकाकर बस इशारे में जवाब देते।
साहूकार,जमींदार,किसान या श्रमिक,पिताजी सबके सम्मान के पात्र थे। हों भी क्यूं ना। गाँव के एकमात्र विद्यालय में गणित पढ़ाते थे। सब उन्हीं से तो पढ़े थे।
“हो गया गाँव भ्रमण ?” माँ भी न,रोज़ घर पहुंचते ही यही प्रश्न। मैं बिना जवाब दिए ही भाग जाता था।
सुबह होते ही पिताजी एक पुराना-सा कपड़ा और एक अधभरी बाल्टी लेकर साइकिल साफ़ करते,मानो उनकी शान उनकी साईकिल की चमक में दिखती हो।
पिताजी घर पर कम ही गुस्सा होते थे। शायद गुस्से का सारा कोटा विद्यालय में निकल जाता होगा। मुझे याद है वो दिन,जब मैं दसवीं कक्षा में था। सुबह-सुबह पिताजी ज़ोर-ज़ोर से आग बबूला हुए चिल्ला रहे थे।
“गौरव,गौरव यहां आ।”
“आ ?” वैसे तो पिताजी ‘आओ’ ही कहते थे। ‘आ’ मतलब आज मैं गया। यही सोच रहा था कि फिर से आवाज़ आई।
“गौरव,तू आएगा या मैं आऊं ?” भलाई मेरे जाने में ही थी,तो मैं गया। पिताजी बेंत लिए खड़े थे।
“सुनिए जी,पहले बात तो सुन लीजिए।” माँ बोली।
“तुम तो रहने दो अभी,तुमने ही ज़्यादा सर चढ़ा रखा है।”
‘आज तो माँ भी…।’ बस सोच ही रहा था।
“इधर आ,ये क्या है।” पिताजी ने साईकिल का हैंडल और पैडल दिखाया।
कल शाम जब पिताजी अपने मित्र रमेश से मिलने गए थे तो मैंने सोचा कि साईकिल चला कर देखता हूँ। अब बड़ा हो गया हूँ,अब तो सीखना बनता है,पर वो साईकिल भी पिताजी की ही वफादार निकली। एक पैडल मारते ही पलट गई। आँगन में ही थी तो मैंने भी वापस सीधा करके रख दिया। सोचा कि जब किसी ने देखा ही नहीं तो किसे पता चलेगा, पर इस साईकिल ने तो जैसे सुबह उठते ही पिताजी को अपनी चोट दिखा दी और मेरी शिकायत लगाकर रो पड़ी।
झूठ या कोई बहाना लगाकर बच भी सकता था मैं,पर पता नहीं क्यों, पिताजी के सामने झूठ निकला ही नहीं।
“वो पिताजी,मैंने सोचा कि मेरी भी ज़िम्मेदारी है,अगर कभी ज़रूरत हो तो मुझे भी साईकिल चलानी आनी चाहिए।”
सुनकर पिताजी कुछ पल सुन्न हो गए,शायद वो ज़िम्मेदारी वाली बात उन्हें अपेक्षित नहीं थी।
“आओ” पिताजी मुझे साईकिल कर बैठाकर खेतों की तरफ़ ले गए। फिर तो अगले एक महीने तक उन्होंने रोज़ मुझे साईकिल सिखाई।
इस बात को कितने साल हो गए नहीं याद,पर हाँ,याद है कि मैं अब पंद्रह साल बाद लौटा हूँ।
पढ़ाई पूरी कर,अमेरिका में समय किस रफ़्तार से दौड़ा,पता ही नहीं चला। पहले माँ मेरी नौकरी के चार साल बाद ही गुज़र गई और अब पिताजी का स्वर्गवास हुए भी बीस दिन हो गए। यहां का सब समेट कर वापस जाना है। इसीलिए ये सब…।
“ढाई हज़ार,सब मिलाकर ढाई हज़ार हुआ साब जी।”
जब गौरव इन खयालों में था तब तक राजा ने सब तोल कर हिसाब भी लगा दिया।
“ये घंटी…ये घंटी मैं ले सकता हूँ ?” गौरव ने पूछा।
“क्या साब,समझता हूँ मैं,एक रिश्ता-सा जुड़ जाता है इन चीज़ों से। कोई बात,कोई पुरानी याद। पूछना क्या है साब,सब आपका ही है। ले लीजिए…।” राजा ने आख़िर राजाओं वाली बात कर दी।
पिताजी की साईकिल न सही,पर उससे जुड़ी यादें हमेशा मेरे साथ रहेंगी।

परिचय-मयंक वर्मा का वर्तमान निवास नई दिल्ली स्थित वायुसेना बाद (तुगलकाबाद)एवं स्थाई पता मुरादनगर,(ज़िला-गाजियाबाद,उत्तर प्रदेश)है। उपनाम ‘निमिशाम्’ है। १० दिसम्बर १९७९ को मेरठ में आपका जन्म हुआ है। हिंदी व अंग्रेज़ी भाषा जानने वाले श्री वर्मा ने बी. टेक. की शिक्षा प्राप्त की है। नई दिल्ली प्रदेश के मयंक वर्मा का कार्यक्षेत्र-नौकरी(सरकारी) है। इनकी लेखन विधा-कविता है। लेखनी का उद्देश्य-मन के भावों की अभिव्यक्ति है। पसंदीदा हिंदी लेखक व प्रेरणापुंज डॉ. पूजा अलापुरिया(महाराष्ट्र)हैं।

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