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कुदरत की ओर

सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’
कोटा(राजस्थान)
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प्रकृति और मानव स्पर्धा विशेष……..


हरपल ही आपाधापी में
भाग रहा है जीवन,
इससे तन है चुका-चुका-सा
थका-थका रहता मन।
दो पल भी अब समय रहा ना
करने को मिल बातें,
भाग दौड़ में दिवस बीतते
चिन्ता में घुल रातें।
काम-कमाई के चक्कर में
भूल गए अपनों को,
नहीं समय है बचा कि देखें
आँखों में सपनों को।
अब तो सिमट गई घर में ही
जैसे दुनिया सारी,
अपने-अपने दुःख हैं सबके
अपनी है लाचारी।
लोग कटे हैं आपस में सब
रहते खोये-खोये,
एक अकेले हँसते-गाते
और अकेले रोये।
कंक्रीटों के जंगल में हम
ढूँढ रहे हरियाली,
इसी फेर में दूर हो चली
हम सबसे खुशहाली।
नहीं देखते उड़ते पंछी
नहीं सुबह की लाली,
नहीं देखते नीला नभ अब
नहीं घटाएँ काली।
फूलों को खिलते देखे भी
कितने दिन हैं बीते,
चिड़ियों को भी बहुत समय से
देखा नहीं चहकते।
दूर हो गए हम इन सबसे
भौतिकता के प्रेरे,
तरह-तरह की अतः व्याधियाँ
रहती हमको घेरे।
अगर चाहते अवसादों के
टूटें सारे बन्धन,
कुदरत से लें जोड़ सभी हम
फिर से अपना जीवन॥

परिचय-सुरेश चन्द्र का लेखन में नाम `सर्वहारा` हैl जन्म २२ फरवरी १९६१ में उदयपुर(राजस्थान)में हुआ हैl आपकी शिक्षा-एम.ए.(संस्कृत एवं हिन्दी)हैl प्रकाशित कृतियों में-नागफनी,मन फिर हुआ उदास,मिट्टी से कटे लोग सहित पत्ता भर छाँव और पतझर के प्रतिबिम्ब(सभी काव्य संकलन)आदि ११ हैं। ऐसे ही-बाल गीत सुधा,बाल गीत पीयूष तथा बाल गीत सुमन आदि ७ बाल कविता संग्रह भी हैंl आप रेलवे से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त अनुभाग अधिकारी होकर स्वतंत्र लेखन में हैं। आपका बसेरा कोटा(राजस्थान)में हैl

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