कुल पृष्ठ दर्शन : 243

हिरण पर क्यों लादें घास ?

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
**********************************************************

आंध्र प्रदेश की सरकार ने पिछले साल अपने सारे विद्यालयों में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी कर देने का फैसला किया और विधानसभा ने उस पर मुहर लगा दी। भाजपा ने इसका विरोध किया और उसके २ नेताओं ने उच्च न्यायालय में याचिका लगा दी। उच्च न्या. ने इस अंग्रेजी को थोपने के फैसले को गैर-कानूनी घोषित कर दिया,लेकिन अब आंध्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय की शरण में चली गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर बहस की अनुमति दे दी है,लेकिन राज्य सरकार के इस अनुरोध को निरस्त कर दिया है कि वह उच्च न्यायालय के फैसले को रोक दे। अर्थात अभी तो आंध्र में तेलुगु और हिंदी माध्यम से बच्चों का पढ़ाना जारी रखा जाएगा।
अपने पक्ष में आंध्र सरकार का तर्क यह था कि,आंध्र के बच्चे यदि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ेंगे तो उन्हें देश-विदेश में नौकरियां आसानी से मिलेंगी। उसने यह प्रगतिशील कदम अपने बच्चों के पक्ष में उठाया है। यह तर्क बिल्कुल सही है,क्योंकि भारत में आज भी अंग्रेजी की गुलामी ज्यों की त्यों है। सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी माध्यम को प्राथमिकता मिलती है और महत्वपूर्ण सरकारी काम-काज पूरी तरह से अंग्रेजी में होता है। जिस दिन सरकारी कामकाज से अंग्रेजी विदा होगी,उसी दिन से अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय दीवालिए हो जाएंगे। अंग्रेजी के इसी अनावश्यक वर्चस्व के कारण देश में गैर-सरकारी निजी विद्यालयों की बाढ़ आ गई है। अंग्रेजी माध्यम के ये विद्यालय ठगी और ढोंग के अड्डे बन गए हैं। इसी ठगी को काटने का आसान रास्ता कुछ नेताओं को यह दिखने लगा है कि,सभी बच्चों पर अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई थोप दी जाए लेकिन वे क्यों नहीं समझते कि शिक्षा की दृष्टि से यह कदम विनाशकारी है। यह आसान दिखने वाला रास्ता,रास्ता नहीं खाई है। इस खाई में हमारे करोड़ों बच्चों को गिरने से बचाना है। देश की सभी सरकारें आज तक इस मामले में निकम्मी साबित हुई हैं। दुनिया के किसी भी सम्पन्न और शक्तिशाली देश में बच्चों की शिक्षा विदेशी भाषा के माध्यम से नहीं होती। हमारे यहां बच्चों को जो अनिवार्य अंग्रेजी पढ़ाई जाती है,उसमें विफल होने वालों की संख्या सारे विषयों में सबसे ज्यादा होती है। विदेशी भाषाओं को पढ़ने की उत्तम सुविधाएं जरुर होनी चाहिए लेकिन वे १० वीं कक्षा के बाद हों और स्वैच्छिक हों। प्रादेशिक सरकारों और केन्द्र सरकारों को ऐसा कानून तुरंत बनाना चाहिए कि,विदेशी भाषा के माध्यम से बच्चों की पढ़ाई पर पूर्ण प्रतिबंध लग जाए। अकबर इलाहाबादी के शब्दों में कहूं तो मैं कहूंगा,-‘हिरण पर घास लादना बंद करें।’

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

Leave a Reply