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आखिर क्यों ?

कविता जयेश पनोत
ठाणे(महाराष्ट्र)
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बचपन में गुड्डे-गुड़िया के खेल में,
सीखा था रिश्ते बनाना,निभाना
लेकिन वो दौर ही कुछ अलग था,
जहाँ न कोई शर्त थी,न सवाल थेl
न अहम था,न कोई बन्धन का आभास,
सिर्फ प्यार,उत्सुकता और मौज से
मासूमियत का पहन लिबास,
हर रिश्ता निभा लिया जाता था।
हर पड़ाव जिन्दगी का,
चाहे बचपन हो,या जवानी
या हो बुढ़ापे की कहानी,
इस अनूठे खेल में मस्ती से
जी लिया जाता था।
अब सोचती हूँ खयाल वो,
गलत भी तो नहीं था
बस खेल-खेल में आंनद बटोर लेना,
इतना ही उदेश्य होता था।
क्यों नही जी पाते हम जिन्दगी,
खेल समझ क्यों…?
आखिर हर एक रिश्ते के संग जुड़ेl
सवाल है…,
हम जीने के लिए जी रहे हैं या!
जीते जी मर रहे हैं,उलझनों में फँसl
किस राह पर आगे बढ़ रहे हैं,
ये मेरा हर एक से सवाल है ??

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