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मेरी अभिलाषा

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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प्रणम्य तुम्हें हे भारती, प्रणम्य तुम्हें शत-शत बार,
योद्धा मुझे बनाना तुम, जन्म लूँ यदि पुनः एक बार।

तेरी माटी का ऋण चुका न पाई इस जन्म में मैं,
अपनों के भरण-पोषण में ही लगी रही सदा मैं।

लिखना चाहा सत्य, पर लिखती रही असत्य सदा,
डर ने किया बसेरा मन में जब भी, लिखा यदा-कदा।

ऐसा कवि बन न सकी, युग द्रष्टा बन जो चमके,
मेरी लेखनी असहाय हुई, देख ढंग इस जग के।

इससे अच्छा किसान बनाना, करूँ मैं तेरी सेवा,
लोक हित उगा सकूँ मैं, फल-अनाज व मेवा।

नेता मुझे मत बनाना, बन न जाऊँ कहीं गद्दार,
साधु भी मुझे बनाना न, करूँ भावों से व्यापार।

सत्यवादियों को हमने, देखा दारुण दुःख सहते,
देशप्रेमियों को हमने देखा रोटी के लिए तरसते।

बेच रहा जो देश को, उसके होते वारे-न्यारे,
देख ऐसी अराजकता, कैसे कोई खुद को सँभाले।

मन की पीड़ा तभी बुझेगी, जब करूँ मैं सत्कर्म,
पर मुश्किल है यहाँ पर करना ऐसा कोई कर्म।

पाप की इस दुनिया में कैसे रहूँ मैं सदा बेदाग,
आखिर इंसान ही हैं हम, हममें भरा वितराग।

इस कालिमा से कैसे छूटूं, बोध यह सिर पर भार,
योद्धा मुझे बनाकर, कर देना जीवन का उद्धार॥