शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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सुनने में बेहद ही प्रिय, सामाजिक व राष्ट्रीय दृष्टि से उत्तम प्रयास है। पहले ‘अच्छा है, अच्छा है, गुणों से भरपूर है, जल्दी टूटता नहीं, हल्का होने के कारण इधर से उधर ले जाने में आसानी, बारिश में वस्तु भीगने नहीं देता, इससे वस्तुएं बनी कम खर्च व ऊर्जा से बनाने में लाभ होता है..’ वगैरह-वगैरह गुणों की खान से लबालब है’ प्लास्टिक।
यदि सरकार ही प्लास्टिक का कच्चा माल भेजना बंद कर दे, तो आज हर चीज प्लास्टिक से जो बन रही है, वह स्वयं: ही समाप्त हो सकती है किंतु, ऐसा कदापि न होगा। बहुत-सी बातों को संरक्षण देना सरकार की ऊपरी मजबूरी है और इसे मानने से इंकार न करने का कारण समझना भी जरूरी है।
हालांकि, समस्या को समस्या ही बने रहने देने से और और तरीके नए तरीके निकलते हैं, लाखों लोगों को रोजगार मिलता है। केवल दूरगामी परिणाम यह दृष्टव्य होता है- ‘तू डाल-डाल में पात-पात।’
प्राचीनकाल में समस्या का निवारण प्रणाली यह थी, जिस वस्तु या व्यक्ति से मानव, समाज व राष्ट्र का भला नहीं हो सकता, नि:संकोच उसे जड़ से ही उखाड़ बाहर फेंक दिया जाता था, यानि पूर्णतया समाप्त।
वर्तमान में हर समस्या के विकल्प तलाश करने में संपूर्ण ऊर्जा झोंक दी जाती है और समस्या का हल निकलता है ‘अल्पकालीन अवधि के लिए।’
ऐसी प्रक्रिया दोहराते-दोहराते, या करते-करते, दीर्घ आयु तक समस्याएं पेचीदा असुर शक्ति बन कर सामने खड़ी हो जाती हैं। तब निराश-हताश हो एक-दूसरे पर छींटा-कशी करने लगते हैं, यही हाल स्वयंसेवी संगठन के प्रमुख व्यापार बनते देश-विदेश से संगठित हो जाते हैं। बेहोशी के इस आलम से होश तब आता है, जब पूरी की पूरी जमीन ही पैरों के नीचे से खिसक जाती है।
नियम, सिद्धांत, या कायदे-कानून सब ठंडे बस्ते में पड़े रहते हैं और अक्सर इनका प्रयोग प्रतिद्वंद्वी पर आजमाया जाता है। और नित नए-नए रुप में प्रचार-प्रसारण का मुख्य अंग बन सबके मन को लुभाने का कार्य करता है।
समाज का शिक्षित वर्ग आपसी बहसों में उलझा रहता है, निम्न वर्ग को इससे कोई लेना देना नहीं होता, थाली का बैंगन बना मध्य वर्ग कभी शिक्षित वर्ग में जा बैठता है और कभी निम्न वर्ग के साथ हो लेता है। उसकी कोई ठोस धारणा ही नहीं होती। बस, एक तीव्र इच्छा होती है कि जल्दी से जल्दी वह आर्थिक स्तर की ऊंचाई को कैसे भी छू ले।
ऐसी प्रक्रिया ही आज राष्ट्र, समाज, व परिवार व अन्य संबंध के बीच अपनी गहरी पैठ बनाए हुए है। आज मानव जीवन-यापन भी प्रत्येक क्षेत्र में एकल उपयोगी प्लास्टिक की पटरियों पर ही तैयार भोजन की सहायता से दौड़ रहा है।
आज के दौर में इससे अधिक की अपेक्षा करना सच में एक मूर्खतापूर्ण कार्य ही कहलाएगा। यह शत-प्रतिशत सच है, यदि सरकार चाहे तो उक्त अठखेलियां बंद कर एक ही नियम से सभी असामाजिक, अमानवीय और अहित करने वाले कार्यों पर प्रतिबंध लगा कर एक सही पथ का प्रयास कर सकती है।
संक्षेप में, यही कहा जा सकता है, और सबका अंतर्मन जानता है -‘वास्तव में, समस्याओं का निवारण ठोस धरातल पर ही भविष्य के मार्ग को प्रशस्त करता है।’