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पगडण्डी,पहाड़ और झील ही नहीं,सत्यम् ,शिवम् और सुन्दरम् का दर्शन है ‘चरैवेति-चरैवेति’

डाॅ. पूनम अरोरा
ऊधम सिंह नगर(उत्तराखण्ड)
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जीवन का सतत प्रवाह काल के तटों से टकराता,उन्हें ढहाता और पुनर्निर्माण करता बहता चला आ रहा है। हर बार की अलग छटा होती है,किन्तु प्रवाह का जल तात्विक रूप से सदा जल ही है। समस्त प्रकृति, परिवेश,गंध,मूल प्रकृति सदा से सर्वत्र एक जैसी ही है। वैदिक ऋषियों ने कण-कण में व्याप्त प्राकृतिक सौंदर्य को देखा। प्राकृतिक रहस्यों के प्रति कौतूहल-जिज्ञासा से ही प्राचीनतम दर्शन का जन्म हुआ। यह मानसिक कौतूहल जो अनेक वेदमंत्रों की रचना का कारण बना,उपनिषदों तक आकर ‘आत्मसाक्षात्कार’ के लक्ष्य में बदल गया।
मैं क्या हूँ ? यह संसार क्या है ? जीवन-मृत्यु का रहस्य क्या है ? सुख-दुःख का सार क्या है ? प्रकृति क्या है ? ईश्वर क्या है ? इत्यादि जिज्ञासाओं के शमन की चेष्टा करने वाला शास्त्र ही दर्शन है। दर्शन का सिद्धांत है कि हम सत्य का साक्षात्कार कर सकें।
लेखक डाॅ. एम. एल. गुप्ता ‘निनाद’
(उदयपुर,राजस्थान)की पुस्तक ‘चरैवेति-चरैवेति’ (एक वैचारिक श्रृंखला)में खोज प्रकृति सत्य है और सत्य से साक्षात्कार की यात्रा है,जिसमें वैचारिक श्रृंखलाएं हैं। इन श्रृंखलाओं में कविता से परे शब्दों के नैपथ्य में ऐसे दर्शन की झलक मिलती है,जिसमें लेखक द्वारा अथाह सागर के उन ज्ञान रत्नों को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है,जिनकी इस समय के जन मानस को भी आवश्यकता है। प्रत्येक श्रृंखला में उनके समक्ष यह परिस्थिति सदा जागरूक रही कि जिन व्यक्तियों के लिए यह तत्व स्वरूप आलोकित किया जा रहा है,उसे ग्रहण करने की क्षमता उन व्यक्तियों में कहाँ तक है ?
गद्य साहित्य भी अपनी सशक्तता में पद्य साहित्य की ही टक्कर का है।रस,भाव प्रवणता,सम्वेदनात्मक आवेग एवं नवीन बिम्ब संधान से गद्य और काव्य दोनों में मौलिकता की प्रबलता का आभास हो रहा है। माँ का आँचल,झरनों का बहाव हो अथवा पर्वतों का कोरापन,झील का किनारा हो अथवा शुष्क मरूस्थल…समस्त तत्व सहजता,सरलता से अपने स्वाभाविक रूप में चल रहे हैं,चलते-चलते पुस्तक के नाम को सार्थक कर रहे हैं ‘चरैवेति-चरैवेति’ (चलते रहो,चलते रहो)।
‘निनाद’ द्वारा लिखित पुस्तक(बोधि प्रकाशन)में काव्य वैभव का स्वर प्रकृति के सुरम्य प्रांगण से मुखरित होकर सत्य पथ से प्रयाण करता हुआ,लोक कल्याण की परिधि में झाँकता हुआ आध्यात्म की सीमाओं को पार कर ईश्वर की अनुभूति तक पहुँचा है। ‘निनाद’ का जीवन अनुभव झीलों की नगरी में रहने के कारण प्रकृति से गहनतम रूप से जुड़ा हुआ है।झीलों के जल से शोर नहीं उठता,वरन् कल- कल की मधुर एवं कोमल ध्वनि नि:सृत होती है,झील के सुदूर किनारे लगे वृक्षों पर पक्षियों का कलरव गान होता है,हरीतिमा ओढ़े उत्तान शिखर हैं। उनके सभी शब्दों व भावों में सहज कोमलता व्याप्त है। उनके गीतों में संगीत की रूनझुन,शब्दों का मादक स्पन्दन और गति का विलक्षण उत्थान-पतन है, क्योंकि ये लेखक-कवि के साथ साथ प्रकृति प्रेमी,संगीत प्रेमी एवं अन्यान्य गुणों को समेटे बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। समग्र प्रकृति में जीवन की यथार्थता उनकी दृष्टि में है,ऐसा इनकी लेखनी से स्पष्ट हो रहा है । प्रारंभ से अंत तक वैचारिक श्रृंखलाओं ने मन को बाँधे रखा है। शीर्षक ‘सत्यम’ की उपरोक्त पंक्तियों को पढ़ते ही मनोमस्तिष्क में कुछ धारणाएं, छवियां-सी बननी प्रारंभ हो गई…-
‘पगडण्डी पर छपे कदमों के निशान मानो पुष्प बन बातें कर रहे हैं कि तुम यहाँ से गुजरते हुए हमारे बीज रूप में हमें यहाँ छोड़ गये थे,ना जाने कितनों द्वारा हम रौंदे गये,हम कुछ समय को पनपे,फिर रौंदे गये,
रोये,गिड़गिड़ाये,फिर हमारे दिन बदले,हम पल्लवित हुए,ग्रीष्म और शरद ऋतु में अकुलाये भी,और वर्षा ऋतु के आगमन पर हम आज हर्षित हैं तभी हर्षा कर,झूम कर आपका स्वागत कर रहे हैं।’
इनकी रचना की पंक्तियाँ-
‘सत्य का साक्षी शिव
निरंजन अनुध्येय
राह दुर्गम एवं अजेय
किन्तु अविश्रांत चलना ही है
चरैवेति-चरैवेति।’
तीसरी श्रृंखला ‘सुन्दरम’ की कुछ पंक्तियाँ उद्धत हैं-
पहाड़ के तले में है एक मूक झील। नियत काल,नियत दिशा,नियत परिस्थिति में,सदैव एक-सी मुस्कराहट लिए। वर्षा की बूँदें जब इसका तन गुदगुदाती हैं तो खिलखिला कर हँस पड़ती है। सर्दियों में कुहरे की घनी चादर ओढ़े अलसाई-सी बस मौन पड़ी रहती है। पहाड़ भी सुबह शाम तिरछी नजरों से कभी कभी निहार लेता है।’ इसमें पहाड़ के तले की झील मानो फिल्म की नायिका है। ॠतुओं के अनुसार झील के मनमोहक सौन्दर्य-भावों को बेहद खूबसूरत शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। फिल्म का नायक पहाड़ भी उसके मनोहर सौन्दर्य पर मोहित है।
तभी अज्ञात शक्ति की ‘प्रेरणा’ से आध्यात्मिक विचारों का सृजन होता है..इस रचना में सुन्दर बिम्बों का प्रयोग किया गया है-
‘निर्झर झरना सृजन का
ना जाने किसकी प्रेरणा है ?
उतर आती है पहाड़ों से
एक नदी निर्बंध
चंचल और उन्मुक्त
संभवतः
यही प्रेरणा है मुक्तिबोध।’
मन और बुद्धि के संतुलन की अभिव्यक्ति, मानो लेखक के अंतः में रस तथा रंग से भरा सुन्दर सरोद बज रहा है। झील के किनारे कवि के हृदय से विराग भरे हृदय को सम्मोहित करता बेहद खूबसूरत गीत प्रस्फुटित हुआ,जो चित्ताकर्षक है-
‘रे मन उड़ चल रे
टूटा तन तरुवर
सूखा मन मरूथल
पीर हिया हर ले
रे मन उड़ चल रे…।

मेघ घुमड़ आये
चक्षु नीर बरसाये
शीतल तन कर ले
रे मन उड़ चल रे…।

ना राग रंग सोहे
ना प्रीत रीत मोहे
चित विराग भर ले
रे मन उड़ चल…।’
शीर्षक ‘विरंची’ के अंतर्गत सतही ज्ञान एवं गहराई लिए ज्ञान में अंतर बिल्कुल स्पष्ट है, जैसे उन्हीं की लिखी पंक्तियाँ-
‘मन की चाक पर
गढ़े जाते हैं
कुछ गहरे
और कुछ छिछले दीए…।’
पगडण्डी,झील ,पहाड़ और लेखक का बेहतरीन सामंजस्य है। ऊँचाई पर जाने के अनुभवों की अनुभूति करते हुए पगडण्डी पर असंतुलित हो गिर जाना,’दर्द’ का महसूस होना और रात को बस्ती के बाशिंदे को चौपाल के मंदिर में इकट्ठे होकर मगन होकर भक्तिभाव से कीर्तन करते देखना। उन्हें देखकर वह भी ‘भक्ति’ ‘वंदन’ की चेष्टा करता,मगर असफल हो जाता।
लेखक ‘सत्य की खोज’ भूमिका के आधार पर दार्शनिक भी है। दार्शनिक की भांति ही उनके मन में प्रश्न उठ रहे हैं… क्यों मैं चल पड़ता हूँ पगडण्डी पर ? किसकी तलाश में ? और क्या तलाशना चाहता हूँ ?
शीर्षक झूठ और सच’ की तुला पर विचारों को तोलते हुए मन ही मन निर्णय करता है…
सच तो स्वमेव है,प्रयास नहीं करना पड़ता, जबकि झूठ खड़ा करना पड़ता है…
सच
जैसे प्यारा मृग छौना
अभय कुलांचे भरता है
झूठ
चुभता हुआ बिछौना
रात रात भर जगता है।
मेरे विचार से भी सच में सच एक लोहा है,जो इस्पात तथा फौलाद से भी पक्का है।इसके हृदय में निवास करने से दृढ़ता तथा पक्कापन बढ़ता है।
शीर्षक ‘बदलाव’ में कवि ने जीवन और जगत की नश्वरता एवं क्षणभंगुरता का अत्यंत सुन्दर विवेचन किया है,साथ ही परिवर्तन के चिरन्तन शाश्वत स्वरूप पर प्रकाश डाला है। कवि कहना चाहता है कि इस संसार में कोई भी वस्तु एक सी स्थिति में नहीं रहती।
शीर्षक ‘दिशा’,’ललकार’ के उपरांत ‘माँ की गोद’ वात्सल्य रस से ओत-प्रोत है तो ‘विकल्प’ शीर्षक में सही विकल्प की पहचान को ही बुद्धिमत्ता बताया है।
समस्त वैचारिक श्रृंखलाएँ ज्यादातर जिंदगी के हिस्से हैं और जीवन की अंतरंग सच्चाइयों से जुड़ी हैं। गद्य व पद्य दोनों में भाषा सादगी और ताजगी से सराबोर है। छोटे-छोटे शब्दों की सुगुम्फित लड़ी पाठक के हृदय को सीधा संस्पर्श करती है। इनके दार्शनिक विचार अत्यधिक सहज,सरस एवं रूचिकर हैं। प्रत्येक पृष्ठ का धीमे-धीमे रसास्वादन करने पर आनन्द का महासागर मिलता है।
‘दृश्यते यथार्थतत्वमनेन’ अथवा जिसके द्वारा यथार्थ तत्व की अनुभूति हो,वही दर्शन है। लेखक ने भी अपनी खोज का निष्कर्ष यही बताया है ‘ईश्वर की अनुभूति।’
यदि आत्मवादी भारतीय दार्शनिक की भाषा में कहा जाए तो कहना पड़ेगा कि दर्शन द्वारा केवल आत्मज्ञान ही ना होकर आत्मानुभूति हो जाती है। पुस्तक के दार्शनिक विचारों के आधार पर इसे आत्मवादी दर्शन के अंतर्गत रख सकते हैं। शोध कार्य करने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए भी यह पुस्तक बहुत ही उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है।
मेरा विशेष अनुरोध है कि,पुस्तक अवश्य पढ़ें। आपके शब्द चयन और उनकी सुन्दरता अद्भुत-अद्वितीय है । मौलिकता,ताजगी,प्रतीकों,उपमानों,बिम्बों के माध्यम से कथ्य का संप्रेषण प्रारंभ से अंत तक महत्वपूर्ण बनाने में पूर्णतया सफल है। प्रकृति की गोद में बैठकर लिखी समस्त श्रृंखलाएं हमें प्रकृति के अपूर्व सौन्दर्य एवं जीवन दर्शन के बेहद करीब ले जाती प्रतीत होती हैं। इसी कारण प्रारंभ से अंत तक वैचारिक श्रृंखलाओं एवं खूबसूरत गीतों ने मन को बाँधे रखा। कोरे घड़े के पानी-सी सौंधी-सौंधी अनुभूति कराती लेखनी है इनकी। इस शानदार पुस्तक की सफलता हेतु हृदयतल से कोटि-कोटि बधाई एवं ढेरों शुभकामनाएं।

परिचय–उत्तराखण्ड के जिले ऊधम सिंह नगर में डॉ. पूनम अरोरा स्थाई रुप से बसी हुई हैं। इनका जन्म २२ अगस्त १९६७ को रुद्रपुर (ऊधम सिंह नगर) में हुआ है। शिक्षा- एम.ए.,एम.एड. एवं पीएच-डी.है। आप कार्यक्षेत्र में शिक्षिका हैं। इनकी लेखन विधा गद्य-पद्य(मुक्तक,संस्मरण,कहानी आदि)है। अभी तक शोध कार्य का प्रकाशन हुआ है। डॉ. अरोरा की दृष्टि में पसंदीदा हिन्दी लेखक-खुशवंत सिंह,अमृता प्रीतम एवं हरिवंश राय बच्चन हैं। पिता को ही प्रेरणापुंज मानने वाली डॉ. पूनम की विशेषज्ञता-शिक्षण व प्रशिक्षण में है। इनका जीवन लक्ष्य-षड दर्शन पर किए शोध कार्य में से वैशेषिक दर्शन,न्याय दर्शन आदि की पुस्तक प्रकाशित करवाकर पुस्तकालयों में रखवाना है,ताकि वो भावी शोधपरक विद्यार्थियों के शोध कार्य में मार्गदर्शक बन सकें। कहानी,संस्मरण आदि रचनाओं से साहित्यिक समृद्धि कर समाजसेवा करना भी है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-‘हिंदी भाषा हमारी राष्ट्र भाषा होने के साथ ही अभिव्यक्ति की सरल एवं सहज भाषा है,क्योंकि हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी है। हिंदी एवं मातृ भाषा में भावों की अभिव्यक्ति में जो रस आता है, उसकी अनुभूति का अहसास बेहद सुखद होता है।

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