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फितरत से डर नहीं

हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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आज वक्त ऐसा आ गया,
इंसान का वजूद ही धोखा हो गया
वह फरेब पर फरेब कर रहा,
फिर भी अपनी इस फितरत से वह नहीं डर रहा।

जवाब कहीं-न-कहीं देना ही होगा,
अपने कुचक्र में इंसान क्यों उलझ रहा है
काँटे बोने वाला क्या चाहता है,
फिर भी अपनी इस फितरत से वह नहीं डर रहा है।

जीत के लिए जो प्रयास नहीं कर रहा,
हार से भी जो नहीं डर रहा जीवन में
वह सिर्फ झूठ चोरी लालच की चालें चल रहा,
फिर भी अपनी इस फितरत से वह नहीं डर रहा।

इंसान आज जरूर खिलाड़ी बन गया,
शह और मात की चालें चल गया
चंद पैसों के लिए वह बहरूपिया बन धोखा दे रहा,
फिर भी अपनी इस फितरत से वह नहीं डर रहा।

इस जिंदगी का कोई भरोसा नहीं प्यारे,
फिर क्यों दौलत के महल भर रहा
चार दिन की ज़िंदगी है,
फिर तू तो मुसाफिर ही है इस जहान में
फिर भी अपनी इस फितरत से वह नहीं डर रहा॥