डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली)
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भारत में सरकारी अस्पतालों को देखकर हमारे केंद्र और राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों को जरा भी शर्म क्यों नहीं आती ? ऐसा नहीं है कि उन्हें इनकी हालत का पता नहीं है। उन्हें अगर पता नहीं है तो वे ‘राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-५’ की ताजा रपट जरा देख लें। उसके मुताबिक बिहार के ८० प्रतिशत मरीज अपने इलाज के लिए गैर सरकारी अस्पतालों में जाते हैं। उन्हें पता है कि इन निजी अस्पतालों में जबर्दस्त ठगी होती है लेकिन जान बचाने की खातिर वे बर्दाश्त करते हैं। वे पैसे उधार लेते हैं, दोस्तों और रिश्तेदार के कृपा-पात्र बनते हैं और मजबूरी में मंहगा इलाज करवाते हैं। ये लोग कौन हैं ? निजी अस्पतालों में क्या कोई मजदूर या किसान जाने की हिम्मत कर सकता है ? क्या तीसरे-चौथे दर्जे का कोई कर्मचारी अपने इलाज पर हजारों-लाखों रु. खर्च कर सकता है ? इन अस्पतालों में इलाज करवाने लोग या तो मालदार होते हैं या मध्यम वर्ग के लोग होते हैं। ये ही ज्यादा बीमार पड़ते हैं। जो मेहनतकश लोग हैं, वे बीमार कम पड़ते हैं लेकिन जब पड़ते हैं तो उनके इलाज का ठीक-ठाक इंतजाम किसी भी राज्य में नहीं होता। उत्तरप्रदेश में भी ७० प्रतिशत मरीज निजी अस्पतालों में जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में भयंकर भीड़ होती है। दिल्ली के प्रसिद्ध मेडिकल इंस्टीटयूट में अगर आप जाएं तो लगेगा कि किसी दमघोंटू हाॅल में मेले-ठेले की तरह आप धक्के खाने को आ गए हैं। देश के कस्बों और गाँवों के लोगों को लंबी-लंबी यात्रा करनी पड़ती है, सरकारी अस्पताल खोजने के लिए ! करोड़ों लोग तो ऐसे हैं, जिन्हें अपने गंभीर रोगों के बारे में बरसों कुछ जानकारी ही नहीं होती, क्योंकि भारत में जांच और चिकित्सा बहुत मंहगी है। होना तो यह चाहिए कि देश में चिकित्सा बिल्कुल मुफ्त हो। सरकार ने अभी 5 लाख रु. के स्वास्थ्य बीमे की जो व्यवस्था बनाई है, उससे लोगों को कुछ राहत जरुर मिलेगी लेकिन इससे क्या सरकारी अस्पतालों की दशा सुधरेगी ? सरकारी अस्पतालों की दशा सुधारने के उस सुझाव पर इलाहाबाद न्यायालय ने मुहर लगा दी थी लेकिन उत्तरप्रदेश की अखिलेश या योगी-सरकार ने उस पर अभी तक अमल नहीं किया है। सुझाव यह था कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक और सांसद से लेकर पार्षद तक सभी के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे अपना इलाज सरकारी अस्पतालों में ही करवाएं। यदि ऐसा नियम बन जाए तो देखिए कि सरकारी अस्पतालों की दशा रातों-रात ठीक हो जाती है या नहीं ? इसके अलावा यदि आयुर्वेद, होमियोपैथी, यूनानी और प्राकृतिक चिकित्सा को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जाए और उनमें अनुसंधान बढ़ाया जाए तो भारत की चिकित्सा पद्धति दुनिया की सबसे सस्ती, सुगम और सुघड़ चिकित्सा पद्धति बन सकती है।
परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।