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…यादें और केवल यादें

डॉ.एम.एल.गुप्ता ‘आदित्य’ 
मुम्बई (महाराष्ट्र)

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होलिका दहन का वह दिन,मैं घर पर ही था। चिकित्सक तो पहले ही जवाब दे चुके थे। बात केवल इतनी बची थी कि कितने दिन और..। चिर-निद्रा में जाने से पहले ही कामिनी की नींद लगातार बढ़ती जा रही थी। वह ज्यादा से ज्यादा समय सो रही थी। पल-पल उसकी हालत बिगड़ती जा रही थी।
ऐसी में भी वह अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं भूली थी। मुझसे पूछा,-“नीचे होली बन गई क्या ? मैं पूजा करा आती।” मैंने कहा,-“अभी थोड़ी देर पहले तो गया था,नहीं बनी थी।” फिर थोड़ी देर में यही पूछा,मैंने फिर वही उत्तर दिया। थोड़ी नाराज होकर बोली,-“देखकर नहीं आ सकते।” मैं देखकर आया,तब तक होली नहीं बनी थी। मैंने बता दिया।
असल में शाम को होलिका दहन के समय ही ज्यादातर लोग होली पूजने आते हैं,और वह सबके आने से पहले ही पूजा करके घर आ जाना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि सब उसकी खराब हालत को देखें और उससे तरह-तरह के सवाल पूछें‌। उसे तो बोलने में भी परेशानी हो रही थी, लेकिन हुआ वही,होली देर से बनी। जब सब आ गए,वह भी तभी पूजा के लिए पहुंची। जब वह पूजा कर रही थी तो मैं अपना दर्द दबाए उसकी तस्वीर ले रहा था,क्योंकि मुझे अच्छी तरह पता लग चुका था कि यह उसकी आखिरी होली है।
ऐसी हालत में भी,हर साल की तरह इस बार भी हमें साथ लेकर उसने होलिका पर धागा लपेटते हुए उसकी परिक्रमा की। फिर बैठकर पूजा की। मैंने देखा कि पूजा करने के बाद उससे उठा नहीं गया,उत्कर्ष उसे उठाने लगा। मैं भी आया। उसने नाराज होते हुए धीरे से कहा,-“क्यों फोटो खींचने में लगे हैं,उठाइए मुझे।” असल में शायद वह नहीं चाहती थी कि उसकी ऐसी हालत में तस्वीर ली जाए।
हर होली में तो वह पूजा करने के बाद होलिका दहन देखने के लिए महिलाओं की टोली में बैठ जाती थी, लेकिन इस बार पूजा करने के बाद होलिका दहन के समय वह सीढ़ियों में एक और चुपचाप बैठ गई,ताकि किसी की नजर उस पर न पड़े। मेरी नजरें लगातार उसी को तलाश रही थीं। वह थोड़ी ओट में बैठी हुई थी,जहां उसकी तस्वीर लेना भी संभव न था।
कितना मुश्किल होता है यह सोच पाना,समझ पाना और उसे स्वीकार कर पाना कि आपका कोई अपना,जो आपका सब कुछ है,जो आपकी आँखों के सामने है। अब कुछ दिनों बाद वह नहीं होगा,इसलिए अपने दर्द को दबाकर मैं हर लम्हे को अपनी आँखों में इन तस्वीरों में समेट लेना चाहता था।
आखिरकार होली का दिन यानी रंग खेलने का दिन भी आ गया। चारों ओर होली की गहमा-गहमी बढ़ रही थी। बिल्डिंग में लगा माइक भी जोर-जोर से होली के गाने बजा रहा था। कामिनी की तबीयत लगातार गिरती जा रही थी। ऐसी हालत में भी उसने मुझे और बच्चों को होली के लिए कपड़े निकाल कर दिए। मैंने कहा,-“मैं होली खेलने नीचे नहीं जा रहा।” उसने कहा-“जाकर आइए ना।” मैंने फिर कहा,-“मेरा मन नहीं है।” उसने समझाया,-” ‘सब लोग घर पर आएंगे। सब सौ सवाल करेंगे,अच्छा है आप थोड़ी देर नीचे जाकर आ जाएं।”
मैंने उसकी बात मान ली। हाथ में गुलाल की एक थैली भी ले ली। नीचे जाने से पहले मैं उसके पास गया और उसके गालों पर थोड़ा-सा गुलाल लगा दिया। उसने कहा,-‘ये क्या ?’ मैंने कहा,-“मुझे नहीं लगाओगी ? लगाओ ना!” फिर उसने भी मुझे थोड़ा गुलाल लगाया। मैंने उसे गले लगा लिया, आँखें छलक उठी। मैं अच्छी तरह जानता था कि यह हमारी आखिरी होली है,आखिरी होली मिलन है। मैं अपनी आँखों के आँसूओं को दबाकर, उससे छिपाकर,मुड़कर आगे बढ़ गया, हालांकि वह सब समझती थी। उससे कब क्या छिपा था ?

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