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समझना होगा ‘आबादी नियंत्रण’ और ‘आबादी बढ़ाओ’ को

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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समस्या

आजकल ‘आबादी नियंत्रण’ और ‘आबादी बढ़ाओ’ में एक बहस चल रही है। कुछ देश आबादी नियंत्रण के दुष्परिणामों को भोग रहे हैं, वहां बच्चे और बूढ़े दो वर्ग बचे हैं। युवा वर्ग नदारत हो गया है तो कुछ देश इन देशों से शिक्षा लेकर ‘आबादी बढ़ाओ’ की तरकीब पर चल रहे हैं।
भारत में वर्ष १९७५ में आपातकाल के दौरान ‘नसबंदी’ कार्यक्रम के कारण सरकार को हार का सामना करना पड़ा था। पहले परिवार नियोजन था, उसकी जगह परिवार कल्याण हुआ। हमारे देश की आबादी लगभग १५० करोड़ हो रही है और विश्व की आबादी ८ अरब हो चुकी है। भारत जैसे देश में आबादी नियंत्रण करना असंभव है। कारण कि, देश में युवाओं की जनसँख्या मान लो २० से ४० वर्ष वालों की ५० करोड़ है। उन्हें कम से कम २ बच्चे पैदा करने का अधिकार तो है और मृत्यु दर कम होने से बच्चों की संख्या जरूर बढ़ेगी। रहा सवाल विशेष जाति -समुदाय का तो उनकी जनसँख्या को रोकना उनका निजी मामला है। कारण कि, भारत लोकतान्त्रिक राष्ट्र होने से हर बात का विरोध होना या करना होता है। भले ही फिर कुछ जाति विलुप्त होने की कगार पर हैं।

वर्तमान में कुछ जाति विशेष में यह सूचना प्रसारित की जा रही है कि बच्चों की संख्या बढ़ाएं। पहल बहुत अच्छी है। पहले प्रत्येक घर में ४-६ बच्चे होना सामान्य बात होती थी। उस समय भी मँहगाई होती थी, सीमित साधन रहते थे, पर सबका पालन-पोषण होता था और जीवन निर्वाह भी मस्ती के साथ होता था। जब से लड़के-लड़कियों की उच्च शिक्षा के साथ पेशेवर होने से कम से कम बच्चे पैदा करने की प्रवत्ति हुई, स्थिति गड़बड़ा गई है। दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है कि आज मँहगाई का होना और शिक्षा महंगी होना, इससे कोई अछूता नहीं है। आज एक बच्चे की शिक्षा का खर्च अपनी-अपनी सम्पन्नता के अनुसार खर्चीला है। आज प्रसूति का ही खर्च लाखों रुपयों में होता है, और बच्चे औसतन कोई न कोई बीमारी लेकर पैदा हो रहे हैं। एकल परिवार होने से लालन-पालन कठिन, पालना घर, छोटी कक्षा से ही बड़ी फीस, उनका रखरखाव और इस कारण उनकी नौकरी प्रभावित होना, ये कारण हैं। आज इसके दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं।
आज पारिवारिकता, सामाजिकता बिल्कुल खत्म होती जा रही है। परस्पर प्रतिस्पर्धा, प्रदर्शन और प्रतिष्ठा के कारण एकांगी होने से मनोवैज्ञानिक तनाव और असुरक्षा का भाव पैदा हो गया है। आजकल ‘लिव इन रिलेशन’, विजातीय शादी, समलैंगिक सम्बन्ध होने के कारण भी आबादी प्रभावित हो रही है।
आर्थिक-सामाजिक पहलू के साथ आज के युवा विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध बनाने के कारण भी बचते हैं।
कम्प्यूटर, मोबाइल और लेपटॉप के कारण युवा वर्ग नपुंसकता का शिकार हो रहा है। उनसे कोई उम्मीद नहीं रखी जा सकती, इस कारण भी पारिवारिक बिखराव बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
मंहगाई के कारण देश में आबादी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ रहा है। शिक्षा बहुत महंगी होने के कारण कर्ज लेकर पढ़ा रहे हैं और भविष्य अंधकारमय होने से भी डरते हैं। भोग-विलास बढ़ा है, पर आबादी नियंत्रण कर रहे हैं। यह वैसे व्यक्तिगत विषय है, पर देश के विकास में शासन कोई कदम नहीं उठा सकती। कारण कि, आप सब पक्षों को खुश नहीं कर सकते। जब तक कठोरता से कदम नहीं उठाए जाएंगे, तब तक समस्या का निदान संभव नहीं होगा, और इसकी संभावना वर्तमान में बहुत धूमिल है। वैसे, यह असाध्य रोग है। जो इलाज़ करने का कदम उठाएगा, उसे हानि उठानी पड़ेगी।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।


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