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अंधी दुनिया में गुम होती किशोर पीढ़ी

ललित गर्ग
दिल्ली
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संचार-क्रांति से दुनिया तो सिमटती जा रही, लेकिन रिश्तों में फासले बढ़ते जा रहे हैं। भौतिक परिवर्तनों, प्रगति के आधुनिक संसाधनों एवं तथाकथित नए जीवन का क्रांतिकारी दौर हावी है, लेकिन हम सामाजिक-पारिवारिक-सांस्कृतिक प्रभावों के प्रति उतने सजग नहीं हैं, जितना बदलावों की आंधी के दौर में होना चाहिए। मोबाइल ने छीन रखा है सबका सुकून, जीवन का आनन्द एवं शांत एवं संतुलित जीवन का स्रोत। हाथ में मोबाइल, सामने लगा रहे टीवी-बस यही बन चुकी है सबकी जिन्दगी। आज किसी भी घर के वातायन में झांक कर देख लें-दुःख, चिन्ता, कलह, ईर्ष्या, घृणा, उन्मुक्तता, पक्षपात, विरोध, विद्रोह एवं रुखेपन के साए चलते हुए दिखेंगे। अपनों के बीच भी पराएपन का अहसास पसरा हुआ। बड़ी चुनौतीपूर्ण स्थिति है, खुद पर तरस खाओ, रिश्तों को सम्भालो, वरना अकेले रह जाओगे, जिन्दगी भर पछताओगे। ऐसे ही एक अभिभावक के लिए पछतावे की स्थिति तब बनी, जब उन्होंने अपनी किशोरी को स्मार्ट फोन दिलाया। पिता ने सोचा था कि, मोबाइल से पढ़ाई में सहायता होगी। जब उन्होंने देखा कि बेटी पढ़ाई के बजाय अक्सर किसी अजनबी युवक से बात करती है तो टोका। बात किशोरी को इतनी नागवार गुजरी कि वह शिकायत लेकर थाने पहुंच गई। माता-पिता की डांट- फटकार से नाराज कोई बच्चा यदि थाने पहुंचता है तो इसे बाल अधिकारों के प्रति उसकी जागरूकता से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन यह किशोरी जिस शिकायत को लेकर थाने पहुंच गई, वह अनेक चिंताजनक सवाल खड़े करता है एवं नई बनती सामाजिक सोच की परतें उधेड़ता है। बालिका का तर्क है कि, माता-पिता मेरी जिंदगी में क्यों दखल दे रहे हैं ?
हमारे अनुभव हमारी सोच को गहरे प्रभावित करते हैं। हमारे मूल्य और आदर्श भी इससे प्रभावित होते हैं। नित नए अनुभव हमारे नजरिए में बदलाव करते रहते हैं। अगर निरपेक्ष होकर देखें तो पाएंगे कि कुछ सालों पहले आप जैसे थे, आपकी पारिवारिक दुनिया जितनी खुशनुमा थी, आज उतनी नहीं है। हम अपने स्व को भूल रहे हैं, संस्कृति एवं पारिवारिक संरचना से दूर होते जा रहे हैं। अपने सिद्धांतों और आदर्शों से समझौता करने लगे हैं। अजीब हालात है कि, दूसरों की खबर लेने का वक्त है पर अपनों का होश नहीं। दुनियाभर के दोस्तों से दुआ- सलाम सब हो रहा, लेकिन अपने से दूरियाँ बढ़ती जा रही है। साथ होकर भी साथ नहीं, अपनों के लिए वक्त नहीं। साथ अपना होकर भी बाहर सब साथी ढूँढ रहे हैं। न सीमाएं हैं, न संस्कार, न मर्यादा। उच्छृंखलता एवं उन्मुक्तता इस कदर हावी है कि, माता-पिता का किसी गलत बात पर डांटना भी बच्चों के लिए अपराध जैसा हो गया है।
प्रश्न है कि, किशोर-किशोरियाँ में अपने माता-पिता के प्रति इस तरह के भाव-विचार-विद्रोह क्यों पैदा हो रहे हैं। बच्चों व अभिभावकों के बीच दूरियाँ क्यों बढ़ रही है ? जवाब हर परिस्थिति में अलग-अलग हो सकते हैं, पर समग्रता का सार यह है कि किसी बच्चे के सकारात्मक विकास के लिए परिवार, पड़ोस और विद्यालय से जो संस्कार मिलने चाहिए, वे नहीं मिल रहे हैं बल्कि, अप संस्कृति एवं विकारों के प्रति चेतना का भी हृास हो रहा है। वास्तव में आज मोबाइल फोन महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके उपयोग को लेकर बच्चों को सतर्क करना होगा। बच्चों को फोन दिलाना यदि जरूरत है तो इसके अच्छे-बुरे का संस्कार देना कर्तव्य। वह जिम्मेदारी परिवार, पड़ोस और विद्यालय की सामूहिक है।
माता-पिता इन दिनों सोशल मीडिया पर बह रही रिश्तों की अंधी दुनिया से ज्यादा चिंतित एवं परेशान हैं, क्योंकि वहाँ दिखने वाले खुशनुमा चेहरे वास्तविक जिंदगी में शायद ही उतने खुशनुमा होते हैं!, लेकिन किशोर पीढ़ी तस्वीरों को ही सच मानकर खुद को उनमें संलिप्त कर लेती हैं। यह सम्पूर्ण पीढ़ी सच का सामना ही नहीं करना चाहती। दरअसल, सोशल मीडिया की दृष्टि से जब किशोर बड़े हो रहे होते हैं तो उन्हें झूठ से भरी चीजों पर यकीन करना सिखाया जाता है। अपनी संस्कृति, अपनी परम्परा एवं अपनी जीवनशैली से एक षडयंत्र के तहत दूर करने की इन कुचेष्ठाओं के प्रति सचेत करना नितान्त अपेक्षित है, भले ही कोई किशोरी पुलिस का डर दिखाए। सोशल मीडिया किशोर पीढ़ी को यह सोचने पर मजबूर करता है कि, उनके पास विकल्प नहीं हैं और उन्हें उनके साथ हो रही सभी चीजों को स्वीकार करके उनसे तालमेल बिठा लेना चाहिए, लेकिन, हर चीज इसी तरह से काम नहीं करती । हमारे आसपास कोई भी चीज आदर्श नहीं है और ना ही सोशल मीडिया का तिलिस्मी संस्कार। एक तरह से सोशल मीडिया एक नशा है, एक अभिशाप है, जिसने जीवन के सौन्दर्य को खंडित किया है। इसके कारण कभी लोग छूट जाते हैं तो कभी वस्तुएं। खुद को संभाले रखना जटिल होता जा रहा है। समझ नहीं आता, करें तो क्या ?
पिछले एक दशक में सोशल नेटवर्किंग की लोकप्रियता जबरदस्त बढ़ी है तो जिन्दगी में जहर भी। दुनिया छोटी होती गई है और पारिवारिक रिश्तों में दूरियाँ बढ़ती गई है। लोग अपनी जिंदगी के हर पहलू पर अपने की नहीं;पराए लोगों की राय, पसंद और रूचि जानना चाहते हैं। ज्यादा से ज्यादा लोग आपस में जुड़े हैं, परंतु क्या इस बात से आप भी सहमत हैं कि, इस जुड़ाव में न तो विश्वास है, न अपनापन, न आत्मीयता और न ही असली रूचि, न ही रिश्तों की गर्माहट, बल्कि भौतिक चकाचौंध, प्रतिस्पर्धा और जलन अधिक है। मजाक में कहा जाता है कि, पूरे परिवार को बातचीत के लिए इकट्ठा करना हो तो वाई- फाई थोड़ी देर के लिए बंद कर दो। यह एक ऐसी दुनिया से लोगों को जोड़ रहा है, जो नजर से बहुत दूर हैं और उन अपनों से भी दूर कर रहा है जो नजर के सामने हैं। रिश्तों की हो या फिर चीजों की पोटली, इसमें ज्यादातर गैरजरूरी चीजें ही भरने का प्रचलन चल रहा है। अपनी जरूरतों का सामान जोड़ना और उन्हें अपने साथ रखना जरूरी है, पर कुछ भी लिए रहना या किसी भी तरह के रिश्तों को ढोते रहना हमें थका देता है, परेशानी एवं संकट में डाल देता है। जरूरी कामों को किनारे कर कई बार जिंदगी को मुश्किल बना देता है, जबकि आत्मीय एवं पारिवारिक रिश्तों के बल पर हम अंधेरों में भी रोशनी ढूंढ लेने में समर्थ होते रहे हैं। बाधाओं के बीच विवेक जगा लेते थे, ऐसे घरों एवं दायरों में कहीं घर में मंदिर बनता रहा है तो कहीं घर ही मन्दिर बन जाता था। जहाँ समस्याओं की भीड़ नहीं, वैचारिक वैमनस्य का कोलाहल नहीं, संस्कारों के विघटन का प्रदूषण नहीं, तनावों की त्रासदी की घुटन नहीं, लेकिन अब ऐसा नहीं हो पा रहा है। जिन्दगी स्वयं एक समस्या बन गई है, टूटते-बिखरते रिश्तों के बीच मूल्य भी टूट रहे हैं, संस्कृति भी कराह रही है। अपनी ही नजरों में हीन करने की यह चेष्टा है, यह भ्रम एवं दिखावे की दुनिया है, यह बाजारवाद है। कई बार संबंधों को ठीक करना भी हमारे वश में नहीं होता। ऐसे में आपको दुखी होने के बजाय स्थिति को स्वीकार कर लेना मजबूरी होती है। इससे जहाँ एक तरफ वास्तविक संबंध दरकते हैं, वहीं दूसरी ओर बनावटी-संकटपूर्ण नए संबंध जुड़ जा़ते हैं।