कुल पृष्ठ दर्शन : 473

You are currently viewing अमेरिकी छवि को दागदार करती बन्दूक ‘संस्कृति’

अमेरिकी छवि को दागदार करती बन्दूक ‘संस्कृति’

ललित गर्ग
दिल्ली
**************************************

दुनिया में स्वयं को सभ्य एवं स्वयं-भू मानने वाले अमरीका में ‘बंदूक संस्कृति’ के साथ लोगों में बढ़ रही असहिष्णुता, हिंसक मनोवृत्ति और आसानी से हथियारों की सहज उपलब्धता का दुष्परिणाम बार-बार होने वाली दुखद घटनाओं के रूप में सामने आना चिन्ताजनक है। अमेरिका में १ हत्यारे ने गोलियाँ बरसाकर करीब २१ लोगों को मौत की नींद सुला दिया और कई को जख्मी कर दिया है। आश्चर्यकारी है कि, दुनिया की सबसे सक्षम अमेरिकी पुलिस १ हत्यारे को पकड़ने में इतनी लाचार हो गई कि, उसे सहयोग के लिए आम लोगों से अपील करनी पड़ी। हिंसा की बोली बोलने वाला, हिंसा की जमीन में खाद एवं पानी देने वाला, दुनिया में हथियारों की आंधी लाने वाला अमेरिका अब खुद हिंसा का शिकार हो रहा है। अमेरिका की आधुनिक सभ्यता की सबसे बड़ी मुश्किल यही रही है कि, यहाँ हिंसा इतनी सहज बन गई है कि, हर बात का जवाब सिर्फ हिंसा की भाषा में ही दिया जाने लगा। हिंसा का परिवेश इतना मजबूत हो गया है कि, वहाँ की बन्दूक-संस्कृति से लोग अपने ही घर में बहुत असुरक्षित हो गए थे। अमेरिका को अपनी बिगड़ती छवि के प्रति सजग होना चाहिए, क्योंकि यह एक बदनुमा दाग है जो उसकी अन्तर्राष्ट्रीय छवि को आघात लगा रहा है।
दुनिया में बंदूक की संस्कृति को बल देने वाले अमेरिका के लिए अब यह खुद एक बड़ी समस्या बन चुकी है। अमेरिका घृणा, अपराध, हिंसा और बंदूक संस्कृति के गढ़ के रूप में पहचान बना रहा है। किसी सिख या किसी मुस्लिम बच्चे की हत्या हो या किसी अश्वेत पर बर्बरता, अमेरिका की स्थिति लगातार निंदनीय, डरावनी एवं असंतुलित होती जा रही है। कोई भी सामान्य-सा आदमी हथियार लेकर आता है और अनेक लोगों की जान ले लेता है। नरसंहार के कथित आरोपी रॉबर्ट कार्ड को पुलिस ने हथियारबंद और खतरनाक व्यक्ति माना है, पर सवाल है कि क्या वह रातों-रात हत्यारा एवं हिंसक हुआ है ? अमेरिका में आए दिन ऐसी खबरें आती रही कि, किसी सिरफिरे ने अपनी बंदूक से कहीं विद्यालय में तो कभी बाजार में अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी और उसमें नाहक ही लोग मारे गए। अब तो अमेरिकी बच्चों के हाथों में भी बन्दूकें हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण वहाँ आम लोगों के लिए हर तरह की बंदूकों की सहज उपलब्धता है और इन बन्दूकों का उपयोग मामूली बातों और उन्मादग्रस्त होने पर अंधाधुंध गोलीबारी में होता रहा है, जो गहरी चिन्ता का कारण रहा है।
आम जन-जीवन में किसी सिरफिरे व्यक्ति की सनक से किसी बड़ी अनहोनी का अन्देशा हमेशा वहाँ बना रहता है, वहाँ की आस्थाएँ एवं निष्ठाएँ इतनी जख्मी हो गई कि, विश्वास जैसा सुरक्षा-कवच मनुष्य-मनुष्य के बीच रहा ही नहीं। साफ चेहरों के भीतर कौन कितना बदसूरत एवं उन्मादी मन समेटे है, कहना कठिन है। अमेरिका की हथियारों की होड़ एवं तकनीकीकरण की दौड़ पूरी मानव जाति को ऐसे कोने में धकेल रही है, जहाँ से लौटना मुश्किल हो गया है। अब तो दुनिया के साथ अमेरिका स्वयं ही इन हथियारों एवं हिंसक मानसिकता का शिकार है। दरअसल, अमेरिका अपने यहाँ नफरत, मानसिक असंतुलन, विद्रोह एवं असंतोष रोकने के अभियान में नाकाम हो रहा है। एफबीआई की वार्षिक अपराध रिपोर्ट रेखांकित करती है कि, बंदूक संस्कृति एवं इससे जुड़ी हिंसा बहुत व्यापक हो गई है। पिछले साल अमेरिका में लगभग ५ लाख हिंसक अपराधों में बंदूकों का इस्तेमाल किया गया था। वर्ष २०२० में बंदूक संस्कृति अमेरिकी बच्चों की मौत का मुख्य कारण बन गई तो २०२२ में हालात और बदतर हो गए। जान गंवाने वाले बच्चों की संख्या १२ प्रतिशत बढ़ गई। इन हालातों में अमेरिका किस तरह दुनिया का आदर्श बन सकता है ?, जबकि दुनिया अमेरिकी संस्कृति का अनुसरण करती है, वहीं अमेरिका तमाम देशों की सामाजिक व मानवाधिकार रिपोर्ट जारी करता है। अमेरिका अगर अपनी कथनी-करनी का भेद मिटाने की ओर बढ़े, तो उसके साथ-साथ दुनिया को ज्यादा फायदा होगा।
राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार अमरीका में ‘बंदूक संस्कृति’ बढ़ाने में वहाँ की नकारात्मक राजनीति की बड़ी भूमिका है। आम जनता तो हथियारों पर अंकुश लगाने के पक्ष में है, परंतु अपने निहित स्वार्थों के कारण अमरीका में हथियारों को बढ़ावा देने वाली वहाँ का सशक्त हथियार गुट और राजनीति से जुड़े लोग इस पर अंकुश नहीं लगने देते। जब भी बंदूक संस्कृति पर नियंत्रण करने की बात उठती है, तो हथियार रखने के संवैधानिक अधिकार की कट्टर समर्थक मानी जाने वाली ‘रिपब्लिकन पार्टी’ के नेता और समर्थक इसके विरोध में उतर आते हैं, जिनके सामने डैमोक्रेटिक पार्टी बेबस हो जाती है। पिछले साल जून में भारी तादाद में लोगों ने सड़कों पर उतर कर बंदूकों की खरीद-बिक्री से संबंधित कानून को बदलने की मांग की। जरूरत इस बात की है कि, इस समस्या के पीड़ितों को राहत देने के साथ-साथ बंदूकों के खरीददार से लेकर इसके निर्माताओं और बेचने वालों पर भी सख्त कानून के दायरे में लाया जाए। विडम्बना देखिए कि, अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक शक्तिशाली और सुरक्षित देश है, लेकिन उसके नागरिक सबसे अधिक असुरक्षित और भयभीत हैं।
खुद सरकार की ओर से कराए गए एक अध्ययन में यह तथ्य सामने आया था कि, अमेरिका में १७ साल से कम उम्र के करीब १३०० बच्चे हर साल बंदूक से घायल होते हैं। अमेरिकी प्रशासन को ‘बंदूक संस्कृति’ ही नहीं, बल्कि हथियार संस्कृति पर भी अंकुश लगाना होगा। अब तो दुनिया को जीने लायक बनाने में उसे अपनी मानसिकता को बदलना होगा। किसी भी संवेदनशील समाज को इस स्थिति को एक गंभीर समस्या के रूप में देखना-समझना चाहिए। ‘देर आए, दुरस्त आए’ की कहावत के अनुसार अमेरिका की आँखें खुले तो अमेरिका के साथ दुनिया को एक शांति एवं अहिंसा का सन्देश जाएगा।
‘मन जो चाहे वही करो’ की मानसिकता वहाँ पनपती है, जहाँ इंसानी रिश्तों के मूल्य समाप्त हो चुके होते हैं, जहाँ व्यक्तिवादी व्यवस्था में बच्चे बड़े होते-होते स्वछन्द हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में आदमी अपनी अनंत शक्तियों को बौना बना देता है। ऐसे लोगों के पास सही जीने का शिष्ट एवं अहिंसक सलीका नहीं होता। ऐसे लोगों में मान-मर्यादा, शिष्टाचार, संबंधों की आत्मीयता, शांतिपूर्ण सहजीवन आदि का कोई खास ख्याल नहीं रहता। भौतिक सुख-सुविधाएँ ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है। अमेरिकी नागरिकों में इस तरह का एकाकीपन गहरी हताशा, तीव्र आक्रोश और विषैले प्रतिशोध का भाव भर रहा है। वे मानसिक तौर पर बीमार हो जाते हैं और उपलब्ध खतरनाक एवं घातक बन्दूकों का इस्तेमाल कर हत्याकांड कर बैठते हैं।