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आतंकवाद के कंधों पर चलती राजनीति और कनाडा की सरकार

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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यह कोई नई बात नहीं कि, जब भारत सहित अनेक देशों में राजनीतिक दल और अनेक नेता अपनी सत्ता के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अलगाववादियों, आतंकवादियों और अन्य विध्वंसक संगठनों की प्रत्यक्ष और परोक्ष मदद लेकर उनकी मदद करते हैं या उन्हें बढ़ावा देते हैं। इस मामले में सर्वाधिक उदाहरण तो भारत में ही मिल जाएंगे, जब अनेक राजनीतिक दलों ने अनेक आतंकियों, माफियाओं और अलगाववादियों आदि को संरक्षण दिया और उनके मत बैंक के बूते सरकारें चलाई। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि, आतंकी गतिविधियों में संलिप्त लोगों की अनेक राज्य सरकारों द्वारा सजा माफ की जाती रही या अदालत में उनके मामलों को कमजोर किया गया। यह भी दुनिया ने देखा कि, किस प्रकार पाकिस्तान आतंकवाद के कंधे पर चढ़कर जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार सत्ता में बना रहा। आतंक में शामिल अनेक लोग जिन्हें सीखचों के पीछे होना चाहिए था, वे सरकारी मेहमान बन रहे और निरंतर आतंक में शामिल होने के बावजूद जननायक की भांति खुले घूमते रहे।
यह सर्वविदित है कि, भारत से सीधा मुकाबला ना कर पाने की स्थिति में आतंकवाद की शास्त्र से भारत को लगातार घाव देने की योजना पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया उल हक ने १९७१ के युद्ध का बदला लेने के लिए भारत में खालिस्तानी आतंकवाद को खड़ा किया था, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि, खालिस्तानी आतंकवाद का चेहरा बने जनरैल सिंह भिंडरवाला को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पंजाब में कांग्रेस के राजनीतिक हित साधने के लिए खड़ा और बड़ा किया। वही भिंडरवाला आगे चलकर पाकिस्तान के कंधों पर खड़े होकर भारत को बहुत बड़ा आघात देने वाले आतंकी के रूप में स्थापित हुआ और उसी के कारण आगे खुद इंदिरा गांधी को अपनी जान गंवानी पड़ी, लेकिन सत्ता की भूख होती ही ऐसी है कि, हम जानते-बूझते भी आतंकियों अलगाववादियों, माफियाओं और तस्करों आदि की मदद लेते रहे हैं। ऐसा भी अनेक बार हुआ है, जब किसी ने ऐसे किसी असामाजिक और घातक तत्व की मदद ली, आगे वह उसके लिए ही घातक बन गया। इंदिरा गांधी का मामला इस संबंध में सबसे सटीक उदाहरण है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि, श्रीलंका में जिस एलटीटीई की मदद के लिए राजीव गांधी ने शांति सेना भेजी, जिस अभियान में भारतीय सेवा को भारी नुकसान भी उठाना पड़ा था, उसी एलटीटीई द्वारा ही राजीव गांधी की भी हत्या हुई थी।
एक बार फिर हम खालिस्तानियों की तरफ लौटते हैं। ज्यादा दिन पुरानी बात नहीं है, जब पंजाब विधानसभा के चुनावों में आम आदमी पार्टी पर खालिस्तानियों से आर्थिक मदद और समर्थन लेने की बात सुर्खियों में आई थी। यही नहीं, पाकिस्तान में बैठे खालिस्तान आतंकवादी ने न केवल इस बात को स्वीकार किया था, बल्कि उसने अरविन्द केजरीवाल पर वादा खिलाफी का आरोप भी लगाया था। उसके बाद पंजाब में खालिस्तान तत्वों की सक्रियता बढ़ने की घटनाएं भी सामने आई थी और ‘वारिस पंजाब दे’ के प्रमुख के रूप में अमृतपाल को विदेश से आयात किया गया एवं एक नए भिंडरवाला वाला के अवतार को मैदान में उतारा गया था। जिसने भिंडरवाला की तर्ज पर यहां अपना जनसमर्थन बनाते हुए कट्टरवादियों की मदद से पुलिस थाने पर हमला किया था। गुरुद्वारों को एक बार फिर खालिस्तान आंदोलन का अड्डा बनाने की कोशिश की थी। हालांकि, इस बार केंद्रीय खुफिया एजेंसियों और राज्य पुलिस ने समय रहते हुए कार्रवाई करके भिंडरवाला के नए अवतार और उनके साथियों को पंजाब से बाहर उत्तर पूर्व में जेल में बंद कर दिया। प्रधानमंत्री की पंजाब यात्रा के दौरान भी ऐसे कट्टरवादी तत्व खुलकर सामने आए थे।
दिल्ली की सीमाओं को महीनों तक बंद करने और दिल्ली को रौंदने वाले किसान आंदोलन के अंदर भी कनाडा से आने वाले पैसे, सुविधाओं और खालिस्तानियों की सक्रियता किसी से छिपी नहीं है। तब भी यह बात सामने आई थी कि, इस आंदोलन को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कनाडा से समर्थन मिल रहा था।
अतीत में भी कनाडा की सरकार खालिस्तान और खालिस्तानी आतंकियों को समर्थन और संरक्षण देती रही है। भारत सरकार के बार-बार आग्रह के पश्चात भी उसने खालिस्तानियों द्वारा कनाडा में हिंदुओं के धर्म-स्थलों पर होने वाले हमलों को रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की। आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में जिस तरह भारत पर आरोप लगाए हैं, उससे उनका खालिस्तान-प्रेम साफ दिख रहा है। प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने न केवल भारत पर आरोप लगाया, बल्कि भारत के एक वरिष्ठ राजनयिक को भी निष्कासित किया। इससे दोनों देशों के संबंध काफी तनावपूर्ण हो गए हैं।
जस्टिन ट्रूडो खालिस्तान के मुद्दे पर भारत के खिलाफ आवाज उठाने वाले पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं। उनके पहले भी कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री के पिता पियर ट्रूडो भी खालिस्तान के समर्थक और संरक्षक रहे हैं। पियर ट्रूडो १९६८ से ७९ तक और फिर ८० से ८४ तक प्रधानमंत्री रहे। भारत में इस दौरान इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। यह वह समय था, जब भारत में खालिस्तानी आंदोलन रफ्तार पकड़ चुका था। उस दौरान उनकी खालिस्तान के मुद्दे पर पियर ट्रूडो से काफी नोक-झोंक भी हुई थी, लेकिन उन्होंने भी इंदिरा गांधी की बात नहीं मानी थी। उस समय खालिस्तानियों का प्रमुख नेता तलविंदर सिंह परमार कनाडा में रहता था। इंदिरा गांधी ने
१९८४ में अक्टूबर की शुरुआत में ट्रूडो से तलविंदर सिंह परमार के प्रत्यर्पण की मांग की थी, लेकिन पियर ट्रूडो की सरकार ने प्रत्यर्पण से इंकार कर दिया, लेकिन जैसा कि हमेशा होता है आतंकियों को संरक्षण देने वाला खुद भी उसकी चपेट में आता ही है। वही तब हुआ। २३ जून १९८५ को खालिस्तानी आतंकियों ने एयर इंडिया के विमान को उड़ा दिया। इस हमले में ३२९ लोगों की मौत हुई थी, मरने वालों में सबसे अधिक संख्या कनाडा के निवासियों की ही थी। जिस खालिस्तानी आतंकवादी संगठन बब्बर खालसा के प्रमुख तलविंदर परमार को कनाडा सरकार ने बचाया था, वही इस हमले का मुख्य सूत्रधार भी था। इन सब बातों के बावजूद भी वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कोई सबक नहीं लिया है।
जस्टिन ट्रूडो की राजनीतिक विवशता भी यही है कि, वह खालिस्तानियों का साथ दें। इसलिए उन्होंने भारत की हर बात को अनसुनी किया और खालिस्तानियों को समर्थन दिया। जी-२० में प्रधानमंत्री द्वारा सीधी बात करने के बाद भी भी सीधे नहीं हुए। इसके चलते भारत सरकार को कड़ा रुख अपनाना पड़ा। इस समय जबकि कनाडा और भारत की बीच संबंध तनावपूर्ण हो गए हैं एवं भारत सरकार ने भी कड़ा रुख अपना लिया है तो निश्चय ही भारत सरकार इस मामले को वैश्विक आतंकवाद के समर्थन से जोड़कर तो प्रस्तुत करेगी ही और विभिन्न राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर भी इसका मुकाबला करेगी। भारत सरकार के रुख से अब जस्टिन ट्रूडो कुछ बचाव की मुद्रा में भी आते दिख रहे हैं,
लेकिन घरेलू मोर्चे पर जस्टिन ट्रूडो या कनाडा के अन्य नेताओं की राजनीतिक मजबूरी को ध्यान में रखते हुए यह भी जरूरी है कि, वहां खालिस्तानी तत्वों के अतिरिक्त जो भारतीय वहाँ हैं, उन्हें भी लामबंद करते हुए मत बैंक बनाकर एक राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा किया जाए।
जहाँ कनाडा में सिक्खों की जनसंख्या २.१ प्रतिशत है, तो हिंदुओं की जनसंख्या का २.३ प्रतिशत है। यह भी कि, सिक्खों में सभी खालिस्तान के समर्थक नहीं हैं। इस प्रकार हम वैश्विक स्तर पर ही नहीं, कनाडा की राजनीति में घरेलू स्तर पर भी भारत विरोधी शक्तियों का मुकाबला कर सकेंगे।