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आत्मजा

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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‘आत्मजा’  खंडकाव्य से,अध्याय-८ …
बोली माँ पति से समझा कर,
अब है समय नहीं सोने का
खोजो वर सुयोग्य बेटी को,
नहीं एक भी क्षण खोने का।

हुई सयानी बेटी अपनी,
लगी समझने वह सब बातें
भावी के प्रति ही आकर्षण,
बढ़ता ज्यों बढ़ती दिन-रातें।

रहती वह खोयी-खोयी-सी,
जैसे अपने को ही भूली
किसी कल्पना में ही सुख की,
मन ही मन में फूली-फूली।

सृष्टि सनातन है गतिशीला,
उसके चरण निरन्तर बढ़ते
नहीं ठहरते,नहीं उतरते,
आगे को ही श्रेणी चढ़ते।

कैसे कोई बेटी जग में,
बेटी ही बन कर रह जाये
बीच पथ में ही जीवन के,
जागृत जिज्ञासा दह जाये।

कैसे बेटी बने न दुल्हन,
कैसे दुल्हन बने न माता
बिना अंकुरित हुए सृष्टि का,
बीज स्वतन में नहीं समाता।

बेटी से क्या माया-ममता,
बेटी की करना क्या चाहत
ब्याज सहित जो देना पड़ती,
बेटी केवल एक अमानतl

जो न समय पर गया उतारा,
भार थका देता वाहक को
जो न समय पर गया चुकाया,
कर्ज रुला देता ग्राहक को।

प्रकृति स्वयं ही देने लगती,
अल्प-अल्प संकेत हमें जब
करते हम विलम्ब तो मिलता,
अतिशय दारुण दंड हमें तब।

नियति नटी की घड़ी न चलती,
आगे-पीछे कभी एक पल
उसकी समय-सारिणी पर ही,
होते सब जग के कौतूहल।

अक्षरस: विधान को अपने,
करवा ही लेती वह पालन
उचित मार्ग से या अनुचित से,
मनुज मानता उसका शासन।

सुनकर हुए पिता कुछ चिन्तित,
दिखी सत्य की झलक कथन में
जो पत्नी का कहा न सुनता,
रहती सदा अशांति सदन में।

कर आश्वस्त उसे वे बोले,
क्यों करती हो चिन्ता रानी
बेटी स्वयं चाँद है अपनी,
जिसकी प्रचलित यहाँ कहानी।

होकर जिससे स्वयं प्रभावित,
कितने ही चकोर बलि जाते
पर न चाँद की दया दृष्टि का,
प्यार भरा संबल ले पाते।

इसी तरह आयेंगे नर वर,
सुन बेटी की ख्याति स्वयं ही
देंगे उसका हाथ सुकोमल,
तब जिसको चाहेंगे हम ही।

बोली माँ,यह कैसे संभव,
वर ही वधू खोजने आवे
आज नहीं वह युग बेटी का,
पिता स्वयंवर स्वयं रचावे।

रहें बेटियाँ पर्दे में ही,
तब भी उन्हें न खोजा जाता
कठिन हुआ बेटों का पर्दा,
उन्हें खोजना बहुत थकाता।

सुन्दरता एवं सुयोग्यता,
रुपए पर हो गईं निछावर
आज नहीं पड़ती बेटी की,
रुपए की ही पड़ती भाँवर।

वर नीलाम किये जाते हैं,
जो बोले सो बाजी जीते
बोल न पाये तो बेटी का,
अनब्याहा ही जीवन बीते।

स्वप्न न देखो अब उस युग के,
करो प्रयत्न लुटाओ रुपया
रुपया बिना नहीं हल होती,
आज ब्याह की कठिन समस्या।

यदि न दहेज दिया मुँहमांगा,
तो बेटी का कहाँ ठिकाना
जो न समय पर जगी चेतना,
तो पड़ सकता है पछताना।

बदली अब सारी परिपाटी,
बदले रीति-रिवाज पुराने
अब आते हैं दूल्हे राजा,
मोटर पर चढ़ ब्याह रचाने।

बडी-बडी मांगें हैं उनकी,
एक बार जो होतीं पूरीं
जीवनभर के लिये माँग लें,
तो भी लगता रहीं अधूरींll

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। 
समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता,गीत,गजल,कहानी,लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन,अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक 
पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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