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‘आर्टिकल १५’ वसुदेव कुटुम्बकम पर प्रहार

इदरीस खत्री
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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निर्देशक-अनुभव सिन्हा,लेखक-गौरव सोलंकी और अनुभव सिन्हा की इस फिल्म में अदाकार -आयुष्मान खुराना,जीशान अय्यूबी,कुमुन्द मिश्रा,रूनीजीनि चक्रवर्ती,नासेर एवं मनोज पाहवा है। संगीत-अनुराग सेकिया ने दिया है।


फ़िल्म से पहले-
जिस देश के आदर्श श्रीराम जी ने वनवासी शबरी के झूठे बैर खाकर यह संदेश दिया हो कि सब समान हैं,उस देश में जात-पात,ऊंच-नीच,श्रेष्ठ-नीच की लड़ाई विश्वास से परे लगती है,लेकिन ये हो तो रहा है। ‘वसुदेव कुटुम्बकम’ का विश्वव्यापी उदघोष देने वाले देश में नीच जाति पर स्वर्ण जाति के अत्याचारों की बखान की लंबी फेहरिस्त निकल आएगी,परन्तु हम अब आधुनिक समाज में जी रहे हैं। तो यह लड़ाई या अत्याचार शनै-शनै कम होता गया किंतु विगत कुछ वर्षों में देश का राजनीतिक परिदृश्य जो धर्मान्धता की भेंट चढ़ा है,उसमें इन सब सोई-दबी कब्रों को पानी डालकर फिर जगाने में महती भूमिका नज़र आती है।
२६ जनवरी १९५० को लागू संविधान के एक उपबन्ध अनुच्छेद १५ में यह रेखांकित कर सम्मिलित किया गया था कि,राज्य किसी भी व्यक्ति से लिंग,जाति,धर्म,नस्ल,जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। यानी सभी नागरिकों को समानता का अधिकार रहेगा,तो क्या आज ७० वर्ष बाद भी यह हो पाया है। देश भीड़तंत्र(मॉब लीचिंग) का अड्डा बनता जा रहा है,जिससे प्रतीत होता है कि हम संविधान का मखौल जब चाहे,तब उड़ा सकते हैं। दलित हो या मुस्लिम या अन्य कोई यदि वह भारत का नागरिक है,तो उससे भेदभाव न किया जाए,लेकिन कुछ फिल्में विवादास्पद मुद्दों को लिए होती है,जिसमें किसी वर्ग विशेष को ज़ालिम (क्रूर) और दूसरे वर्ग को मज़लूम (जुल्म सहने वाला) दिखाकर जनता में सहानुभूति बटोरी जा सकती है,लेकिन फिल्मों के मूल सिद्धांत “सिनेमा,समाज का आईना है” से भी मुँह नहीं फेर सकते।
यह फ़िल्म किसी न किसी एक घटना या घटनाओं की प्रतिध्वनि भी मानी जा सकती है, जैसा लेखक गौरव सोलंकी बताते हैं।
कहानी-
एक नीची जात के परिवार की तीन बेटियां गायब है,जिसमें से दो जवान बहनें एक दरख़्त पर फांसी की हालत में मिलती है। यह नीची जाति के लिए सबक के तौर पर है और ऊंची जाति के लिए इश्तेहार की तरह है कि जो भी हमारा विरोध करेगा,उसको इसी इश्तेहार की तरह टांग दिया जाएगा। सीबीआई जांच शुरू होती है तो पोलिस अधिकारी अयान रंजन (आयुष्मान)पहुँचते हैं। अयान को देश पर बड़ा गर्व है,वह ईमानदारी से कर्तव्य निर्वहन का आदि है,लेकिन यहाँ अयान को ऊँच-नीच,जात-पात से दो-चार होना पड़ता है,साथ ही उसे दो लड़कियों के बलात्कारी कातिलों को खोजना भी है। साथ ही साथ साथी तीसरी लड़की जो लापता है,उसे भी खोजना भी लक्ष्य है।
फ़िल्म को खास वर्ग विशेष के लिए बनाया गया है,तो फ़िल्म की सिनेमाई समीक्षा न करते हुए फ़िल्म के सैद्धान्तिक पहलू पर चर्चा और समीक्षा कर रहा हूँ। फ़िल्म पूर्णतः कलात्मक या समानांतर सिनेमा माना जाए,क्योंकि फ़िल्म सच्ची घटना पर आधारित है। और जब फिल्म सच्ची घटना पर है तो मुहब्बत-रूमानियत भूल ही जाएं। आप अगर फ़िल्म देखते हुए घटना से श्लेष मात्र भी विचलित या विचारित होते हैं तो फ़िल्म ने अपना लक्ष्य पा लिया।
एक दॄश्य जिसमें पेड़ पर दो लड़कियों की फांसी लगी लाशें टँगी हैं,उसमें कैमरा हिलता है-मानो उस दृश्य की सिरहन आपको कंपा देने के लिए हो। एक दृश्य और जिसमें अयान अपने साथी पोलिस वालों से उनकी जात-गौत्र पर चर्चा करता है,अच्छा ही बना है।
फ़िल्म में एक पोलिस वाला(मनोज पाहवा) गली के कुत्तों के लिए बड़ा सहनशील है। वह उनको बिस्किट खिलाता है,चोट लगने पर परेशान होता है,लेकिन नीच ज़ात के इंसानों से बेइंतेहा खुन्नस रखता है। यह किरदार आपको परेशान कर सकता है,क्योंकि नीच ज़ात के इंसानों से नफरत और जानवरों से प्यार…ये किस भारत की बात हो रही है ??
अंत में कामवाली के संवाद आपको सोचने पर मजबूर कर देंगे। अयान ये समझ ही नहीं पाता कि किसके हाथ से पानी पी सकता है,और किसके हाथ से नहीं,उसकी खुद की बिरादरी से भी दो-चार होना पड़ता है।
क्या अयान कातिलों को खोज पाता है,
क्या वह गुमशुदा तीसरी बच्ची को खोज पाता है…! इन सवालों के जवाब के लिए फ़िल्म देखी जा सकती है।
पार्श्व ध्वनि अच्छी बनी है,जो मंगेश ने बनाई है। इक्का-दुक्का गाने भी हैं,जो औसत है और कामचलाऊ हैं,जिन्हें अनुराग सलकिया ने बनाया है।
निष्कर्ष-
फ़िल्म में व्यवसायिक दृष्टिकोण कुछ भी नहीं है। केवल कलात्मक तरीके से एक घटना से रूबरू कराया गया है। फ़िल्म एक वर्ग विशेष और समीक्षकों को ही पसंद आएगी। अनुभव सिन्हा को ‘मुल्क’ के बाद एक प्रासंगिक विषय को जनता तक पहुँचाने के लिए धन्यवाद। कलाकारों का चयन ही आधी विजय होती है।जीशान अय्यूबी,आयुष्मान,कुमुन्द मिश्रा, मनोज पाहवा सभी अपने अपने किरदार में जीवन्त लगते हैं।
फ़िल्म को कला सिनेमा में रखा जाएगा,न कि व्यवसायिक सिनेमा में,तो सितारे देना बेमानी होगा। फिर भी एक उम्दा विषय को बेबाकी से परोसने के साहस भरे फैसले के लिए अनुभव सिन्हा को फिर साधुवाद। इस फ़िल्म को ५ में से ४ सितारे दिए जाना बेहतर है।
फ़िल्म प्रतीकात्मक सिनेमा की शानदार मिसाल है,जो सालों तक याद रहेगी। साथ ही आपको मानसिक रूप से झकझोर भी देगी।

परिचय : इंदौर शहर के अभिनय जगत में १९९३ से सतत रंगकर्म में इदरीस खत्री सक्रिय हैं,इसलिए किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। परिचय यही है कि,इन्होंने लगभग १३० नाटक और १००० से ज्यादा शो में काम किया है। देअविवि के नाट्य दल को बतौर निर्देशक ११ बार राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व नाट्य निर्देशक के रूप में देने के साथ ही लगभग ३५ कार्यशालाएं,१० लघु फिल्म और ३ हिन्दी फीचर फिल्म भी इनके खाते में है। आपने एलएलएम सहित एमबीए भी किया है। आप इसी शहर में ही रहकर अभिनय अकादमी संचालित करते हैं,जहाँ प्रशिक्षण देते हैं। करीब दस साल से एक नाट्य समूह में मुम्बई,गोवा और इंदौर में अभिनय अकादमी में लगातार अभिनय प्रशिक्षण दे रहे श्री खत्री धारावाहिकों और फिल्म लेखन में सतत कार्यरत हैं। फिलहाल श्री खत्री मुम्बई के एक प्रोडक्शन हाउस में अभिनय प्रशिक्षक हैंl आप टीवी धारावाहिकों तथा फ़िल्म लेखन में सक्रिय हैंl १९ लघु फिल्मों में अभिनय कर चुके श्री खत्री का निवास इसी शहर में हैl आप वर्तमान में एक दैनिक समाचार-पत्र एवं पोर्टल में फ़िल्म सम्पादक के रूप में कार्यरत हैंl

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