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‘इंडिया गठबंधन’ भाजपा के लिए चुनौती बनना मुश्किल

ललित गर्ग

दिल्ली
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अंधेरों एवं निराशा के गर्त में जा चुके एवं लगभग बिखर चुके ‘इंडिया गठबंधन’ के लिए कुछ अच्छी खबरों ने जहां उसमें नए उत्साह का संचार किया है, वहीं भारतीय जनता पार्टी के लिए चिन्ता के कारण हैं। पहले उत्तर प्रदेश और फिर दिल्ली में समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी से सीट बंटवारे पर बनी सहमति ने टूट की कगार पर पहुंचे इंडिया गठबंधन में वर्ष २०२४ के आम चुनावों को लेकर संभावनाभरी तस्वीर को प्रस्तुत किया है। अब ये चुनाव दिलचस्प होने के साथ कुछ सीटों पर कांटे की टक्कर वाले होंगे। इन नए बन रहे चुनावी समीकरणों के बावजूद भाजपा के लिए अभी कोई बड़ा संकट नहीं दिख रहा है, भले ही गठबंधन डींगें हांके कि, भाजपा एवं उसके गठबंधन के लिए कड़ी चुनौती पेश करने की स्थिति आ गई है। भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों का जब गठबंधन बना, तभी यह आशंका व्यक्त की गई कि, यह कितनी दूर चल पाएगा, टिक पाएगा भी या नहीं ? कुछ हालात तो ऐसे भी बने कि, इसके तार-तार होने की संभावनाएं बलवती हुई। भले ही अब कुछ सीटों पर दलों के बीच सहमति बनी हो, लेकिन गठबंधन के संयोजक का नाम घोषित नहीं हो पाना अनेक सन्देहों का कारण बना हुआ है।
सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल-टूटन व गठबंधन हो रहे हैं, इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। कुछ अनहोनी होगी, ऐसा सब महसूस कर रहे हैं। प्रजातंत्र में टकराव होता है। विचार फर्क भी होता है। मन-मुटाव भी होता है, पर मर्यादापूर्वक, लेकिन अब इस आधार को ताक पर रख दिया गया है।
राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बडे़ रूप में देखने को मिल रहा है। राजनीति नफा-नुकसान का खेल बन रहा है, मूल्य बिखर रहे हैं। चारों ओर सत्ता की भूख बिखरी है। पिछले कुछ समय से इंडिया गठबंधन को एक के बाद एक कई झटके लगे। पहले तो कांग्रेस ने ही पिछले साल दिसंबर के विधानसभा चुनावों में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद में गठबंधन से जुड़ी बातचीत को ठंडे बस्ते में डाले रखा। फिर गठबंधन के प्रस्ताव पर सबसे बढ़-चढ़कर काम करने वाले नीतीश कुमार ही उसे छोड़ गए। रालोद के जयंत चौधरी भी गठबंधन का हाथ थामते-थामते राजग में शामिल हो गए।
गठबंधन एवं कांग्रेस ने अनेक झटके झेले। छोटे-बड़े नेताओं के कांग्रेस छोड़ने का सिलसिला भी तेज हुआ। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का नाम खास तौर पर चर्चित रहा। इसे चाहे इन नेताओं का व्यक्तिगत अवसरवाद कहें या भाजपा और राजग नेतृत्व की सक्रियता एवं राजनीतिक कौशल, इतना तय है कि इन नेताओं को कांग्रेस का भविष्य खास अच्छा नहीं दिख रहा। आम आदमी पार्टी एवं समाजवादी पार्टी जैसे दल अपनी साख बचाने एवं सत्ता के करीब बने रहने के लिए सीटों के बंटवारे पर सहमत तो हुए हैं, पर उसमें कांग्रेस का घुटने टेकना भी उसकी टूटती साँसों को बचाने की जद्दोजहद ही कही जाएगी। अहम सवाल तो यही है कि क्या गठबंधन की गाड़ी आगे और हिचकोले नहीं खाएगी ? क्या यह दावा पूरी दृढ़ता से किया जा सकता है ?
जी-भरकर एक-दूसरे को कोसने वाले जब हाथ मिलाएं तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। देखा जाए तो कांग्रेस और आआपा के बीच चुनावी गठबंधन होना मूल्यहीनता एवं सिद्धान्तहीनता की चरम पराकाष्ठा है, क्योंकि कांग्रेस की नीतियों के खिलाफ लड़ कर और आंदोलन खड़ा करके ही आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और पंजाब की सत्ता से कांग्रेस को बाहर किया और अपनी स्पष्ट सरकार बनाई। आम आदमी पार्टी ने गोवा में भी कांग्रेस को काफी नुकसान पहुँचाया। ताजा कांग्रेस एवं आम आदमी पार्टी की सहमति से कांग्रेस को ही नुकसान होना है। केजरीवाल की बजाय ममता बनर्जी ने अलग छाप छोड़ी है। उसने बंगाल में कांग्रेस के लिए उनकी मौजूदा २ लोकसभा सीटों को ही छोड़ने की बात कह कर गठबंधन को धराशायी किया। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल ही नहीं, बल्कि त्रिपुरा, असम और गोवा में भी स्वतंत्र चुनाव लड़ने की बात कह रही हैं, जिससे कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में निराशा ही हाथ लगेगी।
इंडिया गठबंधन के न बन रहे सकारात्मक परिदृश्यों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सेहत पर कोई असर न झलकना उनकी राजनीतिक परिपक्वता का परिचायक है। राजग के लिए ४०० सीटों का लक्ष्य तय करने के मोदी के लक्ष्य के सामने अभी भी कोई बड़ी चुनौती दिख नहीं रही है। इन बड़े लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भाजपा एवं मोदी अपनी सीटें कहां से बढ़ा सकेंगे, इसके लिए भाजपा दोतरफा रणनीति पर काम कर रही है। पहली है, दक्षिणी राज्यों में पैठ बनाना। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि भाजपा पहले ही उत्तर-पश्चिम के कई राज्यों में चरम पर पहुंच चुकी है। दूसरी रणनीति है पुराने सहयोगियों को राजग में वापस लाने और नए सहयोगियों को जोड़ने की, जिसमें वह अब तक काफी हद तक सफल भी रही है, लेकिन राजग के विस्तार भर से भाजपा को ३७० सीटें नहीं मिलने वालीं। अभी उसे काफी जोड़-तोड़ करने होंगे। भाजपा दक्षिण के राज्यों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है। राम मंदिर का उत्साह निश्चित रूप से उत्तर भारतीय हिंदी पट्टी के राज्यों में अधिक है, लेकिन दक्षिण भी भाजपा को कुछ चुनावी लाभ दे सकता है। तेलंगाना और केरल आदि दक्षिण के राज्यों पर भाजपा विशेष बल दे रही है, वहां भी इस बार अच्छा प्रदर्शन होने की संभावना है। भाजपा के राजनीतिक समीकरणों एवं रणनीतियों के चलते स्वतंत्र भारत का सबसे दिलचस्प चुनाव में अपने तय लक्ष्यों के अनुरूप ऐतिहासिक जीत को हासिल कर लें तो कोई आश्चर्य नहीं है।