अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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यूँ भोंपूगिरी और काफी हद तक विवेकशून्यता के इस दौर में किसी पात्र लेखक या कवि-कवियित्री की स्मरण सभा में चंद लोग ही पहुंचें और बाकी की निगाहों में यह सवाल तैरे कि मरहूम शख्स कौन था, तो हैरानी की बात नहीं है। पंजाबी की पहली बड़ी कवियित्री और भारतीय साहित्य की एक नामचीन हस्ताक्षर अमृता प्रीतम के जन्म शताब्दी समारोह में कुल जमा ८८ लोग पहुंचे। पूछने पर एक पदाधिकारी की टिप्पणी थी कि,अगर कोई तमाशा या मनोरंजन का कार्यक्रम होता तो जरूर भीड़ जुटती। हमने ४००लोगों को बुलाया था,लेकिन उंगलियों पर गिनने लायक लोग ही इस महान लेखिका को याद करने के लिए जुटे। यह कार्यक्रम अमृता के जन्म दिन पर पंजाब के सबसे बड़े शहर लुधियाना में पंजाबी साहित्य अकादमी और पंजाबी साहित्य अकादमी दिल्ली ने मिलकर किया था। अमृता प्रीतम के लेखन के प्रशंसकों की संख्या इस देश में बहुत बड़ी है। उनका पद्य लेखन हो या गद्य लेखन,पोर-पोर संवेदना से भरा है। हर अभिव्यक्ति में गजब की ईमानदारी और बेबाकी। मानो वो जिंदगी का हर लम्हा पी जाना चाहती हों। अपनी प्रेम कविताओं के बरक्स अमृता प्रीतम देश विभाजन की त्रासदी की भुक्तभोगी थीं। धर्म की बुनियाद पर हुए बंटवारे के बाद अपनी मातृभूमि से बिछड़ने की उस पीड़ा,उस अत्याचार और आर्तनाद को भी अमृता ने पूरी शिद्दत से अपने साहित्य में अभिव्यक्त किया। अमृता को १९४७ में लाहौर छोड़कर भारत आना पड़ा थाl बंटवारे पर लिखी उनकी कविता ‘अज्ज आखां वारिस शाह नूँ’ सरहद के दोनों ओर उजड़े लोगों की टीस को एक-सा बयां करती है कि,दर्द की कोई सरहद नहीं होती। इस कविता में अमृता प्रीतम कहती हैं,-“जब पंजाब में एक बेटी रोई थी तो(कवि) वारिस शाह तूने उसकी दास्तान लिखी थी,हीर की दास्तान। आज तो लाखों बेटियाँ रो रही हैं,आज तुम कब्र में से बोलो..उठो अपना पंजाब देखो,जहाँ लाशें बिछी हुई हैं,चनाब दरिया में अब पानी नहीं ख़ून बहता है..हीर को ज़हर देने वाला तो एक चाचा क़ैदों था,अब तो सब चाचा क़ैदों हो गए।” अमृता की माँ एक शिक्षक थीं और पिता करतारसिंह हितकारी कवि और ब्रज भाषा के विद्वान। वो साहित्यिक पत्रिका भी निकालते थे। लिहाजा,अमृता को साहित्य की घुट्टी बचपन से ही मिली थी। कहते हैं कि बचपन में ही माँ की मौत ने उन्हें एकाकी बना दिया था,और इस एकाकीपन का तोड़ उन्होंने खुद निरंतर लेखन में ढूंढा था। कम उम्र में ही उनकी शादी पंजाबी साहित्यकार प्रीतमसिंह से कर दी गई, लेकिन वह ज्यादा चली नहीं। शायद,संवेदना के स्तर पर दोनों में कोई ताल-मेल नहीं बन पाया होगा। उम्र के ४१वें साल में अमृता ने प्रीतम से तलाक लेकर पूरी तरह मुक्ति पा ली। हालांकि,अपने नाम के आगे वो ताजिंदगी प्रीतम
लिखती रहीं।दरअसल,अमृता प्रीतम की कहानी जीवनभर सात्विक प्रेम तलाशने और उसी में डूबते-उतराने की कहानी है। जिंदगी के हर क्षण को पूरी शिद्दत से जीना और उसे भीतर तक महसूस करना अमृता के लेखन की खूबी है। उनकी कविताएं हरी नर्म घास पर ढलकती शबनम-सी हैं। अमृता ने हिंदी में भी खूब लिखा। वो कुछ समय प्रगतिशील आंदोलन से भी जुड़ी रहीं,लेकिन किसी तरह का प्रचारात्मक लेखन उन्होंने नहीं किया। अमृता को भारतीय ज्ञानपीठ और पद्म विभूषण सहित कई बड़े पुरस्कार और मान-सम्मान मिले। आजादी के बाद रोमांटिक सपनों में जीने वाली एक पूरी पीढ़ी को उन्होंने प्रभावित किया। अमृता के लेखन को पूरी दुनिया में सराहना मिली। कई भाषाओं में उसके अनुवाद हुए। उनकी सौ से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं।इन सबमें उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ अनूठी है। अमृता ने महान शायर साहिर लुधियानवी को दिल से चाहा,पर खुद अमृता के शब्दों में-“साहिर धर्म की दीवार नहीं तोड़ पाया।” लिहाजा,यह रिश्ता कभी परवान नहीं चढ़ा,किन्तु मन के कोने में साहिर की जगह दीये की लौ की माफिक कायम रही। अमृता और साहिर का यह ‘अव्यक्त प्रेम’ इस मायने में अनूठा था कि उसकी हदें आध्यात्मिक प्रेम को छूती थीं। वास्तव में साहिर के प्रति अमृता की बेपनाह मोहब्बत साहिर की बेमिसाल और दिल की गहराइयों से निकली शायरी के प्रति थी। हालांकि,बाद में उन्होंने अपनी बाकी जिंदगी चित्रकार इमरोज के साथ गुजारी। यह लिव-इन रिलेशनशिप
भी आम स्त्री-पुरूष के रिश्तों से कहीं अलग और रूहानी थी। अफसोस कि,ऐसी महान रचनाकार की सौं वीं जयंती पर उन्हें याद करने के लिए सौ लोग भी नहीं जुट सके। वो भी नहीं,जिनकी मातृभाषा पंजाबी है,और वो भी नहीं, जिनके जज्बात को कभी अमृता ने अपने शब्दों में पिरोया था। वक्त का यह कैसा बदलाव है ? कैसी अहसान फरामोशी है ? कैसी असंवेदना और मूढ़ता है ? हिंदी वालों ने भी अमृता को शायद इसलिए याद नहीं किया कि,वो पंजाबी की साहित्यकार थीं ? राष्ट्रवादियों ने इसलिए याद नहीं किया कि,वो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ी थीं ? जिंदगी की हर शै को धर्म के आवरण(वस्त्र,लपेटन)में लपेटने वालों ने इसलिए याद नहीं किया,क्योंकि सिख अमृता ने अपनी जिंदगी २ मुस्लिम संस्कृतिकर्मियों के साथ गुजारी ? पाकिस्तान में पंजाबियों ने इसलिए याद नहीं किया,क्योंकि वो विभाजन के बाद भारत चली आई थीं ? साहित्य के दुकानदारों ने इसलिए याद नहीं किया,क्योंकि अमृता किसी खेमे का झंडा उठाकर नहीं चलीं ?यूँ देखा जाए तो अमृता की कहानी भी महान हिंदी लेखक मुंशी प्रेमचंद की अंतिम यात्रा से बहुत अलग नहीं है,जिसमें चंद लोग ही शामिल हुए थे। किसी ने पूछा तो कहा गया कि कोई मास्टर मर गया है। आज युवा पीढ़ी में अमृता को कितने लोग जानते और समझते हैं,कहना मुश्किल है। वैसे भी संवेदना और अभिव्यक्ति के पुराने तौर-तरीके अब बदल गए हैं। जज्बात की गहराइयों में उतरना और उन्हें नापने की कोई रचनात्मक कोशिश भी अब मोबाइल पर घंटों खेल खेलने से कहीं ज्यादा वक्त की बर्बादी है। कई बार लगता है कि, जीवन अब केवल सोशल मीडिया की पोस्ट तक महदूद होकर रह गया है और इसके आगे केवल खुदकुशी है। हालांकि,अमृताओं को इससे खास फर्क नहीं पड़ता। वो हर बियाबान में जीने की राह खोज लेती हैं। इस देश में अमृता को भले ठीक से याद न किया गया हो,पर गूगल ने अपने डूडल के जरिए अमृता प्रीतम को जरूर याद किया। शायद इसलिए कि,वो स्त्री मन की ऐसी चितेरी थीं,जिसका कोई सानी नहीं है। आज जब नारी पर अत्याचार की खबरें हम रात-दिन सुनते हैं,तब अमृता का वह साक्षात्कार बरबस याद आ जाता है,जिसमें उन्होंने कहा था-“कोई भी लड़की,हिंदू हो या मुस्लिम, अपने ठिकाने पहुँच गई तो समझना कि ‘पूरो’ (एक लड़की का नाम) की आत्मा ठिकाने पहुँच गई।” हाँ,अगर ऐसा है तो यह सचमुच वाॅट्सऐप पर मिलने वाली भ्रामक सूचनाओं के बीच एक सच्ची खबर से साक्षात्कार जैसा ही है। है न!