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गडकरी का ‘नीति उपदेश’ और गोपाल भार्गव का ‘अ-नीति प्रस्ताव’…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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राजनीति और खासकर भारतीय राजनीति में नीति-उपदेश की आयु कितनी अल्प होती है,इसका उदाहरण समझना हो तो मध्यप्रदेश में नेता प्रतिपक्ष और वरिष्ठ भाजपा नेता गोपाल भार्गव का वह ताजा बयान देखना चाहिए,जिसमें उन्होंने राज्य की कमलनाथ सरकार को कंधा दे रहे सपा और बसपा के विधायकों को,उस सरकार को गिराने और भाजपा की डोली उठाने का प्रस्ताव दिया है। सीधे तौर पर यह राजनीतिक दल-बदल का ‘नेह निमंत्रण’ है,ताकि राज्य की कांग्रेस सरकार को जितनी जल्दी मुमकिन हो,गिराकर खुद सत्ता में आया जा सके। भार्गव का यह बयान केन्द्रीय परिवहन मंत्री और दिग्गज भाजपा नेता नितिन गडकरी के हाल में दिए गए ‘सत्य वचन’ के चार दिन बाद ही आया है,जिसमें उन्होंने राजनेताओं को चूहों की माफिक पार्टी बदलने की प्रवृत्ति से बचने की नेक सलाह दी थी। नागपुर में एक कार्यक्रम में गडकरी ने बेबाकी से था कि नेताओं को अपनी विचारधारा पर कायम रहना चाहिए और डूबते जहाज से कूदते चूहों की तरह पार्टी बदलने से बचना चाहिए। गडकरी के मुताबिक उन्हें लगता है कि नेताओं को स्पष्ट रूप से राजनीति का अर्थ समझना चाहिए,क्योंकि राजनीति,महज सत्ता की राजनीति नहीं है। महात्मा गांधी,लोकमान्य तिलक,पंडित जवाहर लाल नेहरू और वीर सावरकर जैसे नेता सत्ता की राजनीति में शामिल नहीं थे। कुछ इसी से मिलती-जुलती बात भाजपा के एक वरिष्ठ मार्गदर्शकमंडलीय नेता डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने भी कही। दिग्गज कांग्रेस नेता जयपाल रेड्डी की श्रद्धांजलि सभा में बोलते हुए जोशी ने कहा कि आज देश को ऐसे नेताओं की जरूरत है,जो इस बात की फिक्र किए बिना अपनी बात रख सकें कि इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुश होंगे या नाराज। यानी जो कहें,निडरता से कहें,बिना यह सोचे कि इसमें उनका राजनीतिक और व्यक्तिगत फायदा है या नुकसान। अर्थात ऐसे नेता वो ही हो सकते हैं,जिनकी वैचारिक रीढ़ मजबूत हो और जो चेहरा देखकर तिलक न लगाते हों। इन बयानों की तात्विक विवेचना से पहले इनके संदर्भ,राजनीतिक तकाजों और निहित स्वार्थों को भी समझना होगा। गडकरी ने जो बात कही,वह आज की भारतीय राजनीति की बेशर्म सच्चाई है और इस हमाम में भाजपा सहित सारे दल शामिल हैं। बल्कि,भाजपा की भूमिका तो अलमबरदार की है। यूँ कहने को भाजपा जैसे कुछ दल खुद को विचारधारा आधारित पार्टी बताते नहीं थकते,लेकिन सत्ता के दस्तरखान पर उन्हें कुछ भी खाने और हजम करने से कोई परहेज नहीं होता। बहुत दूर न जाएं,लोकसभा चुनाव में भाजपा की केन्द्र में शानदार वापसी को सौ दिन ही हुए हैं और जल्द ही देश के तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसी के साथ राजनीतिक दल-बदल का मीना बाजार भी सजने लगा है। सबसे ज्यादा भीड़ उसी भाजपा के स्टाॅल पर है,जिसका प्रतिनिधित्व गडकरी करते हैं। उपलब्‍ध जानकारी के हिसाब से महाराष्ट्र,झारखंड और हरियाणा में अभी तक ३९ नेता अपनी पार्टियों को तलाक देकर भाजपा की बारात में शामिल हो चुके हैं और कई कतार में लगे हैं। भीतर ही भीतर सौदेबाजियां चल रही हैं। सौदा पटते ही कोई भगवा तो कोई तिरंगा दुपट्टा ओढ़कर तस्वीरें खिंचाता दिखेगा। महाराष्ट्र में एक बड़े नेता नारायण राणे तो कब से कमल की डंडी थामने की जुगत में हैं। चुनाव से पहले होने वाले ये दलबदल आजकल ‘पाॅलिटिकल मेगा शो’ की मानिंद आयोजित किए जाते हैं। पार्टी के शीर्ष नेताओं की हैसियत का अंदाजा इस बात से लगाया जाता है कि उनकी मौजूदगी में दूसरी पा‍र्टी के कितने दलबदलुओं ने अपनी मूल पार्टी को तिलांजलि देकर नए राजनीतिक दल का चरणामृत पिया। ऐसे में सवाल यह है कि,राजनीतिक विचारधारा का अब क्या अर्थ रह गया है और क्या सत्ताभोगी विचारधारा ही अब सर्वो‍परि हो गई है ? बेशक अधिकांश राजनीतिक दलों का जन्म किसी न किसी विचार की कोख से होता है। वह विचार सिद्धांत रूप में और प्रतिबद्ध भाव में तभी तक जीवित रहता है,जब तक सत्तार्जन उसका एकमेव लक्ष्य नहीं बन जाता,क्योंकि जनता का समर्थन मूल रूप से उस विचार को ही मिलता है,जो कोई न कोई राजनीतिक विकल्प पेश करता है। यहां राजनीतिक विकल्प से तात्पर्य प्रचलित तंत्र में बदलाव के नैतिक आह्वान और उसकी कार्य पद्धति से है,लेकिन जैसे ही यह विचाररूपी यान सत्ता की कक्षा में प्रवेश करता है,उसका वैचारिक आग्रह बूस्टर की तरह बीच में ही अलग हो जाता है। नेता इस मुगालते में आ जाते हैं कि,जनता उनकी महज शकल,अकल या सियासी बाजीगरी पर रीझ कर ही मत दे रही है और उन्हें सत्ता का जाम थमा रही है। लिहाजा,ये नेता विचारधारा की खिचड़ी पकाते रहने के बजाए सीधे उस एटीएम का बटन दबाने में जुट जाते हैं,जो असीमित अधिकार,धन और वैभव को उगले। किसी विचारधारा को लेकर चप्पलें घिसते रहने के बजाए यह काम उस चलती गाड़ी में सवारी से तुरंत हो सकता है,जिसका टिकट ‘ऑनलाइन’ मिल रहा हो। ऐसे में राजनीतिक विचारधारा की दृष्टि से धुर विरोधी भी ‘शत्रु’ के शिविर में घुसकर खुद को ‘पाॅलिटिकली करेक्ट’ साबित करने में रत्तीभर संकोच नहीं करते। इसीलिए,कब कांग्रेस का आदमी भगवा चुनरी ओढ़ ले और कब भाजपा का आदमी सेक्युलर होने की पुंगी बजाने लगे,कहा नहीं जा सकता,क्योंकि वह राजनीति में धूनी रमाने नहीं,चांदी काटने आया है और इसी में अपने राजनीतिक जीवन की मुक्ति मानता है। ऐसे में नैतिक रूप से सही होने का कोई कीड़ा उसके दिलो-दिमाग में नहीं होता। इस मामले में वामपंथियों और हार्ड कोर संघियों का रिकाॅर्ड बेहतर है,क्योंकि वो आसानी से अपनी वैचारिक निष्ठाएं नहीं बदलते,पर बाकी दलों में तो केवल संज्ञाओं का फर्क है,संज्ञानों का नहीं। गडकरी ने अपने वक्तव्य में बेबाकी से यह भी कहा कि आज ज्यादातर लोग भाजपा के लंगर में इसलिए जीमना चाहते हैं,क्योंकि जनता भाजपा पर मोहित है। यानी कल को यह स्थिति किसी और के साथ भी हो सकती है,लेकिन इस दल-बदली में नेता का अपना जमीर क्या है ? इस राजनीतिक दल-बदल के मूल में ज्यादातर नेताओं का बेपेंदी का होना भी है,क्योंकि आज अधिकांश पार्टियों में खुशामदियों और चापलूसों की भरमार है। आम कार्यकर्ता देखता है कि ऐसे लोग तेजी से आगे भी बढ़ते हैं,तो फिर क्यों न उसे ही सही माना जाए। हालांकि,यह भी तथ्‍य है कि ऐसे दलबदलुओं का राजनीतिक जीवन चक्र कई बार मच्छर की तरह होता है। वे जब चाहे मसल दिए जाते हैं। तात्कालिक स्वार्थों को सिद्ध करने दूसरे दलों में गए नेताओं का नए दल में सलूक अक्सर शरणागत कैदी की तरह ही होता है। वो न तो घर के रह जाते हैं,न घाट के। फिर भी वे दल बदलते हैं। वैसे भी सत्ता के गोंद से चिपके रहना एक बात है,और अपने मूल राजनीतिक संस्कार को बदलना दूसरी बात। गडकरी ने सही कहा कि,ऐसे नेता इतिहास नहीं रचते,वो केवल शतरंज के मोहरे होते हैं,जिन्हें चलाता कोई और है। अर्थात शतरंज के खिलाड़ी वही होते हैं,जो सत्ता सिंहासन को ही अपना आराध्य मानने के बजाए विचार-कीर्तन को राजनीतिक साधना का आधार मानते हैं। अब जब भाजपा के ही गोपाल भार्गव ने दूसरे दलों के विधायकों को जो प्रस्ताव दिया है,उसे क्या समझें ? क्या यह गडकरी के नीति उपदेश का सियासी उतारा है या फिर अपने ‘पाॅलिटिकली करेक्ट’ होने की दिशा में दिया गया बयान है,अथवा वो (और उनकी पार्टी भी) नैतिक रूप से सही भी दिखना चाहते हैं ? सत्ता के अखाड़े में यह दांव सही हो(जैसे कि भाजपा ने कई राज्यों में खेला भी हैl)भी हो सकता है,लेकिन हकीकत में वह अविचार के कंधों पर विचारधारा की अर्थी ही होगी।

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