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साहित्यिक सम्मान में बात साहित्यकारों के स्वाभिमान की-सिद्धेश्वर

पटना (बिहार)।

साहित्यिक समारोह गैर सरकारी हो या सरकारी, लेखकों-पत्रकारों और श्रोताओं के बीच में ही सुशोभित होता है। सिर्फ पुरस्कार पाने वाले लेखकों, परिवार के सदस्यों, विधायकों, मंत्रियों के बीच गोपनीय रूप से बिल्कुल नहीं। आम लेखकों और श्रोताओं के अभाव में ऐसा ‘साहित्यिक सम्मान समारोह’ सरकारी अधिक लगता है। यह साहित्यकारों का सम्मान है, या अपमान ? क्योंकि यहां पर बात साहित्यकारों के स्वाभिमान की है।
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वावधान में कवि-कथाकार सिद्धेश्वर ने आभासी कार्यक्रम ‘तेरे मेरे दिल की बात’ में यह विचार व्यक्त किए। साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संदर्भों से जुड़ी इस चर्चा में ‘साहित्यिक समारोह बन गया सरकारी समारोह’ के संदर्भ में उन्होंने कहा कि, जो साहित्यकार अपने जीवन काल में आर्थिक अभाव के कारण एक पुस्तक भी प्रकाशित नहीं कर पाता, और कोई छोटा-मोटा सरकारी पुरस्कार भी उसे प्राप्त नहीं होता, तो ऐसे में उसके मान-सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा कौन करेगा ? हालांकि, सच यह भी है कि जो सच्चा साहित्य साधक होता है, उसे पीड़ा पहुंचती भी है तो वह उसे भुला देता है। वह अपने साहित्य सृजन कर्म में लगातार जुटा रहता है।
सिद्धेश्वर के विचार पर ऋचा वर्मा ने कहा कि, साहित्य हमें जीने की तमीज सिखाता है। इस तरह साहित्यकारों का योगदान समाज के निर्माण में बहुत ही प्रमुख होता है। इसलिए समाज में साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए यह आवश्यक है कि, साहित्य संबंधी किसी भी गतिविधि में आम लोगों की भी सहभागिता हो। विजया कुमार मौर्य ने कहा कि, साहित्य को समृद्ध बनाने और संस्कृति को सुदृढ़ करने की दिशा में प्रत्येक जनपद जिला भाषा अधिकारी की महत्व भूमिका रहती है। इसी प्रकार प्रदेश के अन्य जिलों की साहित्यिक गतिविधियाँ भी कवियों-लेखकों की प्रेरणा एवं प्रस्तुति का माध्यम बनती रहती है।
इंदु उपाध्याय ने कहा कि, साहित्य हमारा भाव है, जो समाज का आईना है। इसे राजनीति से दूर ही रखना चाहिए। साहित्य और राजनीति का कोई मेल नहीं है।

रजनी श्रीवास्तव, एकलव्य केसरी, अपूर्व कुमार, सुधा पांडे, सपना चंद्रा व संतोष मालवीय आदि ने भी विचार व्यक्त किए।