कुल पृष्ठ दर्शन : 15

You are currently viewing ईश्वरीय शक्तियाँ ही कल्याण का पथ

ईश्वरीय शक्तियाँ ही कल्याण का पथ

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
**************************************

ईश्वर ने जब पृथ्वी पर सब प्रकार के जलचर, नभचर एवं थलचर जीवों का निर्माण किया, तब सोचा कि किसी ऐसे जीव की सृष्टि करनी चाहिए, जो इन समस्त जीवों पर नियंत्रण रख सके। अतः उन्होंने अपनी असीम शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का समावेश कर अपने जैसे जीव का निर्माण किया और उसे पृथ्वी पर राज्य करने के लिए भेज दिया।
अब ईश्वर का सर्वोत्कृष्ट प्राणी होने के कारण मनुष्य का संकल्प भव्य है। मनुष्य को परमेश्वर ने यह शक्ति दी है, जिसके द्वारा वह नीर-क्षीर विवेक कर सकता है। उसके मानस जगत में एक दिव्य ज्ञान का अस्तित्व है, और वह है ‘अन्तरात्मा’।
दूसरों के साथ बुराई करने को हम पाप कहते हैं, परन्तु यही नियम स्वयं के साथ भी लागू होता है। जब हम अपने साथ बुरा बर्ताव करते हैं, तब भी पाप करते हैं। अतः, स्वयं से यह प्रतिज्ञा करें कि, सदा अपनी भलाई की बात करेंगे।अपना सम्मान स्वयं करेंगे, और भविष्य के लिए उत्कृष्ट चित्र स्थापित करेंगे।
जब व्यक्ति दृढ़तापूर्वक स्वयं से कहता है कि, मैं एक साधारण व्यक्ति नहीं हूँ, शुद्ध आत्मस्वरूप शक्ति का पुंज हूँ, महान तेजस्वी, पूर्ण प्रतिभावान हूँ, शरीर नहीं, जीव नहीं, परम आत्मा का स्वरूप हूँ, मैं अपनी शारीरिक, मानसिक शक्तियों का स्वामी हूँ, तब ऐसे आत्म संकेतों से सुप्त शक्तियाँ जागृत होने लगती हैं।
मन में यह विचार आना चाहिए कि, मैं ईश्वर का अंश हूँ। मुझसे श्रेष्ठ जीव संसार में दूसरा कोई नहीं है। आत्म- ज्ञान के इस दिव्य स्वरूप को प्रकाशित करने से मस्तिष्क मानसिक दासता से मुक्त हो जाता है। मन का प्राण आत्मा है और इसमें प्रवेश से संशय, भ्रम और भय-भ्रांति के जाल से हमारा मन मुक्त हो जाता है। यदि जीवन को वास्तव में उपयोगी बनाना है तो कमज़ोर भावनाओं को त्याग कर कर्तव्य की ओर ध्यान दें एवं इन्हें पूर्ण करने में संलग्न हो जाएँ। अब प्रश्न उठता है कि, कर्तव्य कौन-से हैं, जिन्हें पूरा करना है-
पहला कर्तव्य शरीर की सही देखभाल करना है। इस अनमोल मशीन के उपयोग में कितनी सावधानी की आवश्यकता है, यह हम सब अच्छी तरह जानते हैं। शरीर के उपरांत अपनी मानसिक शांति को स्थिर रखने का सतत प्रयत्न करना चाहिए।
प्रश्न उठता है कि, हम आगे कैसे बढ़ें ? हमारी उन्नति का उद्गम स्थान हमारी आत्मा है। यदि अपनी आत्मा में भटकते हुए मन को इष्ट भावना पर आरूढ़ कर लिया, तो कार्य अत्यन्त सुगम हो जाएगा। हमारा एक-एक विचार हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करता है। जैसा हम सोचते-विचारते और बोलते हैं, जैसी भावनाओं में निरंतर रमण करते हैं, उसी के अनुसार हमारा पथ प्रशस्त होता है। अतः, आन्तरिक ईश्वरीय शक्तियों के विकास की आवश्यकता है।
इसके लिए कुछ उपाय हैं-
सद्ग्रन्थों का अध्ययन,
महापुरुषों की जीवनी, उनके भाषण और प्रवचन, संसार का भ्रमण और क्रियात्मक अनुभव, समाज में रह कर ज्ञान प्राप्त करना, बातचीत, लेखन तथा कहानी एवं लेख द्वारा।
मार्ग थोड़ा कठिन अवश्य है, पर प्रयत्न करने से सब संभव है। हमारी दुर्बलताएँ हमें इस पथ पर चलने नहीं देतीं, मन बार-बार विद्रोह करता है। कारण हैं हमारी पंचेन्द्रियाँ।
पंच इन्द्रियों को देह रूपी रथ को खींचने वाला अश्व माना गया है। आत्मा उस रथ में सवार है। रथी को ध्येय पर ले जाने के स्थान पर ये अश्व विषयों की खाई में ला गिराते हैं। अतः, इनको वश में करके नियत मार्ग पर चलाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है।
भगवान कृष्ण ने गीता में इन्द्रियों को नियंत्रित करने के विषय में अर्जुन को समझाते हुए कहा है कि, ‘यद्यपि मन वायु की भाँति चंचल है और उसको नियंत्रित करना कठिन है। फिर भी निरंतर अभ्यास और दृढ़ निश्चय द्वारा इसे वश में किया जा सकता है।’

अतः, निरंतर अभ्यास करें, अपने अंदर जो ईश्वरीय शक्तियाँ हैं, उन्हें बाहर आने दें, यही दैवी सम्पदा है, जिसके बल पर आप कल्याणकारी मार्ग के अनुयायी हो सकते हैं।