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उन घड़ियों में रोएं क्यों ?

ललित गर्ग
दिल्ली

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जिन्दगी का एक लक्ष्य है- उद्देश्य के साथ जीना। सामाजिक स्वास्थ्य एवं आदर्श समाज व्यवस्था के लिए बहुत जरूरी होता है कर्तव्य-बोध और दायित्व-बोध। कर्तव्य और दायित्व की चेतना का जागरण जब होता है,तभी व्यक्तिगत जीवन की आस्थाओं पर बेईमानी की परतें नहीं चढ़ पाती। सामाजिक,पारिवारिक एवं व्यक्तिगत जीवनशैली के शुभ मुहूर्त पर हमारा मन उगती धूप ज्यूं ताजगीभरा होना चाहिए,क्योंकि अनुत्साही,भयाक्रांत,शंकालु, अधमरा मन संभावनाओं के नए क्षितिज उद्घाटित नहीं होने देता,समस्याओं से घिरा रहता है।
समस्याएं चाहे व्यक्तिगत जीवन से संबंधित हों, पारिवारिक जीवन से संबंधित हों या फिर आर्थिक या सामाजिक जीवन की। इन प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे व्यक्ति का यदि नकारात्मक चिंतन होगा तो वह भीतर ही भीतर टूटता रहेगा,नशे की लत का शिकार हो जाएगा और जीवन को अपने ही हाथों बर्बाद कर देगा। जो व्यक्ति इन प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ नहीं पाते वे आत्महत्या तक कर लेते हैं या परहत्या भी कर बैठते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में स्वयं के जीवन को और अधिक जटिल बना देता है। लेखिका पैट होलिंगर पिकेट कहती हैं, ‘ये आपको तय करना है कि अपना समय कैसे बिताएंगे। वरना हम यूँ ही व्यस्त बने रहते हैं और जीवन कहीं और घटता रह जाता है।’
जीवन की बड़ी बाधा है खुद को दूसरों से बेहतर साबित करने की होड़ एवं दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश। इससे हम कई बार खुद ही नीचे गिरते जाते हैं। वो करते हैं,जो असल में करना ही नहीं चाहते। नतीजा,सफलता मिलती भी है तो खुशी नहीं मिल पाती। खुद को बेहतर बनाना एक बात है, पर हर घड़ी खुद को साबित करने के लिए जूझते रहना खालीपन ही देता है।
वियतनामी बौद्ध गुरु तिक न्यात हन्न् कहते हैं, ‘बहुत से लोग जिंदा हैं,पर जीवित होने के जादुई एहसास को कम ही छू पाते हैं।’ हम जितना भागते हैं,समस्याएं उतनी बड़ी होती जाती हैं। हम एक से भागते हैं,चार और पीछा करने लगती हैं,जबकि सच कुछ और ही होता है।
सामाजिक एवं व्यक्तिगत अनुशासन के लिए आखिर दंड और यंत्रणा से कब तक कार्य चलेगा ? क्या पूरे जीवन-काल तक आदमी नियंत्रण में रहेगा ? भयभीत समाज सदा रोगग्रस्त रहता है,वह कभी स्वस्थ नहीं हो सकता। भय सबसे बड़ी बीमारी है। जिस समाज में कर्तव्य और दायित्व की चेतना जाग जाती है,उसे डरने की जरूरत नहीं होती।
यह मन का डर ही है कि हम प्रतिष्ठा एवं अपनी पहचान बनाने के लिए अनेक काम हाथ में ले लेते हैं,पर पूरा एक भी नहीं हो पाता। समझ नहीं आता कि क्या जरूरी है,क्या नहीं ? और फिर काम करने की प्रेरणा ही नहीं बचती।
जिन लोगों में सम्यक् दायित्व की चेतना एवं संतुलित सोच होती है,वे व्यक्ति अनेक अवरोधों के बावजूद ऊपर उठ जाते हैं। आज के साहित्य का एक शब्द है-‘भोगा हुआ यथार्थ’। हमें केवल कल्पना के जीवन में नहीं जीना। सामाजिक परिवेश में बहुत कल्पनाएं उभरती हैं,किन्तु,आप निश्चित मानिए कि कल्पना तब तक अर्थवान नहीं होती जब तक कि ‘भोगे हुए यथार्थ’ पर हम नहीं चल पाते। हमारा जीवन यथार्थ का होना चाहिए।
प्रतिकूल परिस्थितियों में भी व्यक्ति सामान्य रूप से जीवनयापन कर सकता है। आवश्यकता है मानसिक संतुलन बनाए रखने की। सकारात्मक चिंतन वाला व्यक्ति इन्हीं परिस्थितियों में धैर्य, शांति और सद्भावना से समस्याओं को समाहित कर लेता है।
प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच असंतुलन से हमारे शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर होता है। इससे एक के बाद एक कार्य बिगड़ सकते हैं और उस स्थिति में कोई सहायक भी नहीं होता। असहाय बना हुआ व्यक्ति बद से बदतर स्थिति में चला जाता है। आज की युवा पीढ़ी अपने भविष्य को संवारने के लिए संघर्षरत है। इस संघर्ष में जब उन्हें सफलता मिलती है तो वह अपने आपको आनंदित महसूस करती है। असफल होने पर युवा मानस जल्दी ही संयम,धैर्य,अनुशासन और विवेक खो देता है।
प्रतिकूलता और उदासीनता के क्षणों में इन पंक्तियों को बार-बार दोहराएं-‘‘कल का दिन किसने देखा, आज के दिन को खोयें क्यों ? जिन घड़ियों में हँस सकते हैं उन घड़ियों में रोएं क्यों ?’’
प्रतिकूल परिस्थितियों के बारे में सोचते रहने से समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। इसे संभव बनाया जा सकता है -किंतु आवश्यकता है मानसिक संतुलन बनाए रखने की, तीव्र इच्छाशक्ति, सकारात्मक और स्वस्थ चिंतन को बनाए रखने की।

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