शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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शहरों की शामों में,
इमारतों की एक-एक मंजिल से
उतरती धूप…!
गाँवों की शामों में,
खेत-खलिहानों में फैली
संकुचित होती धूप…!
कुछ तो है,
दोनों के बीच बंधा हुआ युगों से
आओ खोजें,
कुछ नया करने की चाह
परस्ती हुई धूप में…!
शायद,
एक शहर की वैज्ञानिक शाम
या एक गाँव की सुनहरी शाम,
चहक उठे यह कहकर-
‘दोनों में ऊर्जा अक्षुण्ण है,
विपरीत समय में भी चलने की
दोनों के भीतर गहरी परछाई है,
नित उगते-चढ़ते
और,
ढलते-बढ़ते दिनकर की।
कहो,
स्नेह बंधन-सी।
एक शाम शहर की,
एक शाम गाँव की॥