अजय जैन ‘विकल्प’
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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हम भूल रहे मुस्कुराना,
ऐसा क्या पा लिया हमने ?
पंछी, प्रकृति और पर्यावरण,
क्यों खुद को दुश्मन बना लिया हमने ?
नहीं लुभाता अब मौसम हमें,
क्या उनका कोई अधिकार नहीं ?
नदी, पहाड़, तालाब सब बेगाने हुए,
की नहीं बचाने की कोशिश हमने।
दानव हुए हम पालित धरा के,
गिरते जा रहे लालच में हर दिन
भूले जमीं पे उनका भी योगदान,
उनको मिटा के यूँ घरौंदे बना लिए हमने।
सुनते नहीं मौन भाषा उनकी,
मानते नहीं हम कभी भी
चिंता नहीं हमें किसी की,
सुख-संतोष-रोमांच घटा लिया हमने।
क्यों नहीं देते कुछ पल पंछियों को ?
प्रेम करते जा रहे विलुप्त।
कलरव की चाह, पर मौन हैं,
अपने अहं को जहान बना लिया हमने॥