जसवीर सिंह ‘हलधर’
देहरादून( उत्तराखंड)
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खून के रिश्तों में आए संक्रमण का क्या करें!
लुप्त होती मधुर वाणी आचरण का क्या करें!!
डस गया विषधर हमारे लोक मंगल गान को,
भूल बैठे पीढ़ियों से हम मिले सौपान को।
अर्थ के अब कूप में डूबी पड़ी संवेदना,
जिंदगी को ढक रहे इस आवरण का क्या करें!!
कुछ पुराकालीनता से मुक्त ज्यादा हो गए,
दासता में सभ्यता से युक्त ज्यादा हो गए।
वेद की सारी ऋचायें मौन होकर रह गयी,
सोच लो वैदिक क्षरण के संस्मरण का क्या करें!!
शादियों में आदमी दिखता अकेला भीड़ में,
पंख झुलसें,शावकों के आग पनपी नीड में।
कर्ण भेदन हो रहे हैं कंठ कुंठित वाण से,
लोक-लज्जा नाम के पर्यावरण का क्या करें!!
राम,रावण एक जैसे दिख रहे हैं आजकल,
सेतु को करने लगे हैं ध्वस्त खुद ही नील-नल।
छंद ‘हलधर’ लिख रहा है काम खेती छोड़कर,
नित्य भारत में हुए सीता हरण का क्या करें!!