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खतों की बात पुरानी हो चली…

डॉ. स्वयंभू शलभ
रक्सौल (बिहार)

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वो भी क्या दिन थे जब खतों में दिल का हाल लिखा जाता था…कोरे कागज पर जज़्बात उकेरे जाते थे…लफ़्जों में अहसास पिरोये जाते थे…पढ़ने वाला भी उसी शिद्दत से हर्फ़ दर हर्फ़ महसूस करता था…खत भेजने में भी वही शिद्दत होती थी…जवाब आने के इंतज़ार में भी वही बेताबी रहती थी…।
अब जमाने की हवा ऐसी चली कि मिलने-जुलने और मिल-बैठकर गपशप करनेवाले वाले लोग भी अचानक आँखों के सामने से गायब हो गए…।
फिर यह काम फोन से होने लगा…मोबाइल आने के बाद लोग दूर रहकर भी एक-दूसरे के करीब महसूस करने लगे…।
वक्त तेजी से बदला…तो अब तो फोन कॉल करना भी भारी लगने लगा है…।
पूरा माहौल ही बदल गया…होली,दीवाली हो…नया साल हो या कोई और पर्व त्योहार…हर मौके पर एक सन्देश सभी सगे-संबंधियों और दोस्तों को भेज देना कितना आसान हो गया है…हम अचानक से डिजिटल दुनिया में आ गए हैं…।
हमारी भावना…हमारी संवेदना…हमारी पूरी दुनिया ही मोबाइल फोन और लैपटॉप में सिमट गई है…अब हर किसी को अलग-अलग भी संदेश भेजने की जहमत उठाने की जरूरत नहीं पड़ती…एक संदेश कहीं से नकल करके एक साथ तमाम लोगों को भेज देना है…।
अपने मन की बात कहने या खुद से कुछ लिखने की जरूरत ही खत्म हो गई है, जैसे…सिर्फ नकल,चिपकाओ और भेजना ही सीखना है…
जेब में अब कलम रखना भी जरूरी नहीं रहा… स्मार्ट फोन रखना जरूरी हो गया है…पल में एक संदेश सबके पास पहुंच जाते हैं…बस एक संदेश भेज दिया… बात भी खत्म…सारा काम भी खत्म…।
इसमें कोई शक नहीं कि,इस डिजिटल युग में इस तकनीकी सहूलियत ने संप्रेषण को आसान बनाया है,लेकिन क्या इस बात का खयाल रखा जाना जरूरी नहीं कि यह आदत कहीं हमारी अभिव्यक्ति की क्षमता को ही न खत्म कर डाले…,हमारे जज्बात ही न मर जाएं…। संवादहीनता की इस सुरंग में चलते-चलते कहीं हम बिल्कुल तन्हा न हो जाएं…,इसे सोंचा जाना चाहिए।

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