ललित गर्ग
दिल्ली
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आजादी के अमृतकाल के पहले लोकसभा चुनाव की आहट अब साफ-साफ सुनाई देे रही है। भारत के सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह चुनावी मुद्रा में आ गए हैं और इसी के अनुरूप बिछ रही चुनावी बिसात में अपनी गोटियाँ सजाने में लगे दिखाई पड़ने लगे हैं। २०२४ लोकसभा एवं इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सभी दलों ने कमर कस ली है। पहली बार देखने को मिल रहा है कि चुनाव के इतने लम्बे समय पूर्व ही चुनाव जैसी तैयारियाँ होती हुई दिख रही है। टुकड़े-टुकड़े बिखरे कुछ दल फेविकॉल लगाकर एक हो रहे हैं। सत्ता तक पहुँचने के लिए कुछ दल परिवर्तन को आकर्षण व आवश्यकता बता रहे हैं। कुछ प्रमुख दलों के नेता स्वयं को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देख रहे हैं। मतदाता जहां ज्यादा जागरूक हुआ है, वहां राजनीतिज्ञ भी ज्यादा समझदार एवं चालाक हुए हैं। उन्होंने जिस प्रकार चुनावी शतरंज पर काले-सफेद मोहरें बिछाने शुरु कर दिए हैं, उससे मतदाता भी उलझा हुआ प्रतीत करेगा। अपने हित की पात्रता नहीं मिल रही है। कौन ले जाएगा देश की डेढ़ अरब जनता को आजादी के अमृतकाल में ? सभी नंगे खड़े हैं, मतदाता किसको कपड़े पहनाएगा, यह एक दिन के राजा पर निर्भर करता है। सभी इस एक दिन के राजा को लुभाने में जुटे हैं। कोई मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लेकर चुनाव जीतने की कोशिश करने में जुटा है तो कोई गठबंधन को आधार बनाकर चुनाव जीतने के सपने देख रहा है।
विपक्षी दल येन-केन-प्रकारेण भाजपा को सत्ता से बाहर करने में जुटे हैं, इसके लिए विपक्षी दलों में एकजुटता के प्रयास हो रहे हैं। भाजपा एवं उसके सहयोगी दल भी अपनी स्थिति को मजबूती देते हुए पुनः सत्ता में आने के तमाम प्रयास कर रहे हैं।
भाजपा लंबे समय से दक्षिण भारत में अपनी जमीन मजबूत करने की कोशिश कर रही है। लोकसभा चुनाव के लिए भी उसने इस सिलसिले में तैयारियाँ शुरू कर दी हैं। उत्तर भारत में उसने पिछले लोकसभा चुनाव में जितना चमत्कारी प्रदर्शन किया, इस बार उसे दोहराना उसके लिए जटिल प्रतीत हो रहा है। इसलिए अगर उसे फिर से बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आना है तो दक्षिण में सीटें बढ़ानी होंगी। भाजपा इस योजना पर पूर्ण आत्मविश्वास एवं प्रखरता के साथ बढ़ भी रही थी, लेकिन कर्नाटक विधानसभा चुनावों से उसे झटका लगा है। कहा जा रहा है कि भाजपा पहले जितनी ताकतवर नहीं रही, लेकिन भाजपा की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपनी हार के कारणों को बड़ी गहराई से लेते हुए उन कारणों को समझने एवं हार को जीत में बदलने के गणित को बिठाने में माहिर है।
आम चुनाव की सरगर्मियाँ उग्रता पर है, इस बार का चुनाव काफी दिलचस्प एवं चुनौतीपूर्ण होने वाला है। कांग्रेस ने कर्नाटक की जीत को आम चुनाव की जीत से जोड़ने की जल्दबाजी दिखाना शुरु कर दिया है। जिस तरह हिमाचल एवं कर्नाटक में उसने मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लिया, उसे वह इसी वर्ष होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव में दोहराने को तत्पर है। जैसी गारंटियाँ, लोक-लुभावन वादे एवं मुफ्त की रेवड़ियाँ कांग्रेस देने की बात कर रही है, वैसी ही अन्य दल भी कर रहे हैं, जिनमें आम आदमी पार्टी सर्वे-सर्वा है। हाल में दिल्ली नगर निगम चुनाव में उसने १० गारंटियां दी थीं। ये और कुछ नहीं लोक-लुभावन वादे ही होते हैं, जिन्हें जनकल्याण का नाम दिया जा रहा है। मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के मुख्यमंत्री ने चुनाव से ६ महीने पहले ही लोक कल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा रखी है, जिससे राज्य का चुनावी माहौल और गर्मा रहा है।
किसी भी राष्ट्र के जीवन में चुनाव सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है,’ लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं बैठता, अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाकर नायक चुनती है, लेकिन जनता तिलक किसको लगाए, इसके लिए सब तरह के साम-दाम-दंड अपनाए जा रहे हैं। हर राजनीतिक दल अपने वायदों एवं घोषणाओं को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बता रहे हैं, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है, लेकिन ऐसा होता तो आजादी के अमृतकाल तक पहुंच जाने के बाद भी देश गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य समस्याओं से जूझता नहीं दिखाई देता। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आँख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि “अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।”,
लोकसभा चुनाव केवल दलों के भाग्य का ही निर्णय नहीं करेगा, बल्कि उद्योग, व्यापार, रक्षा आदि राष्ट्रीय नीतियों, राष्ट्रीय एकता, स्व-संस्कृति, स्व-पहचान तथा राष्ट्र की पूरी जीवन शैली व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा। इस बार वर्ग, जाति, धर्म व क्षेत्रीयता व्यापक रूप से उभर कर आती हुई दिखाई दे रही है और दलों के आधार पर गठबंधन भी एक और दूसरे प्रदेश में बदले हुए हैं। कुर्सी ने सिद्धांत और स्वार्थ के बीच की भेद-रेखा को मिटा दिया है। मतपेटियां क्या राज खोलेंगी, यह समय के गर्भ में है, पर एक संदेश मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो समस्याओं पर नकेल डाली जा सकती है, लेकिन देश बनाने एवं विकास की ओर अग्रसर करने की बजाय सभी दल रेवड़ियाँ बांट कर एक अकर्मण्य पीढ़ी को गढ़ने की कुचेष्टा कर रहे हैं।
चुनाव जीतने के लिए वित्तीय स्थिति की अनदेखी कर लोकलुभावन वादे करना अर्थव्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ है। इस पर रोक नहीं लगी तो इसके दुष्परिणाम जनता को ही भुगतने पड़ेंगे।