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परंपराओं का आग्रह भी और सम्मान भी

फिजी यात्रा:विश्व हिंदी सम्मेलन…

भाग-७

‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ के उद्घाटन, समापन और अलंकरण सत्रों में फिजी और भारत के वरिष्ठ राजनेता उपस्थित रहे। फिजी के राष्ट्रपति ऊपर कोट पर टाई पहने नीचे घुटनों तक एक वस्त्र पहने थे, जैसा बेटियां स्कर्ट के रूप में पहनती हैं। सबसे अधिक प्रभावित करने वाली बात यह रही कि, उद्घाटन सत्र के अत्यंत सुव्यवस्थित और सुगठित समयबद्ध कार्यक्रम में उनकी स्थानीय परंपराओं को पर्याप्त से अधिक स्थान मिला। यदि बताऊं कि, डेढ़ घंटे के उद्घाटन सत्र में से लगभग एक घंटा उन्होंने अपनी लोक परंपराओं को दिया तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। उस समय मन में एक ही विचार आ रहा था कि, हम भारत के लोग अंतरराष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम तो छोड़िए कई बार अपने नगर स्तर के स्थानीय संस्थागत कार्यक्रमों में भी इस बात पर विमर्श करने लगते हैं कि, सरस्वती वंदना होना चाहिए या नहीं ? ‘वंदे मातरम’ पूरा यदि गाया तो समय कितना लगेगा ? मानो वह अधिक लगने वाला १ मिनट ही हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी पूंजी बन जाता है और हम ‘वंदे मातरम’ के भी २ अंतरे गाकर छोड़ देते हैं। सरस्वती वंदना हमें धार्मिक लगने लगती है। माल्यार्पण करना और दीप प्रज्वलन भी कुछ लोगों को धर्मनिरपेक्षता पर चोट लगता है। ऐसे में फिजी के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री की उपस्थिति में उनके द्वारा संपन्न प्रत्येक परंपरा जिसका कोई तर्क हम जैसे लोगों को ध्यान में नहीं आ रहा था, किंतु हमें बहुत अच्छी लगी। इन सत्रों से एक बात सीख कर लौटे हैं, हम अपनी परंपराओं के सम्मान करने में और प्रकटीकरण में कंजूसी नहीं करेंगे। समय अधिक लगे, कोई चिंता नहीं, किंतु राष्ट्र की संस्कृति बाहर से आए हुए लोगों के समक्ष जाना अत्यंत अनिवार्य है।
मुझे नहीं पता कि विदेश मंत्रालय, गृह मंत्रालय और राजभाषा विभागों से गए हुए प्रशासनिक अधिकारियों को यह बात ध्यान में आई है कि नहीं, किंतु यदि भविष्य में इस प्रकार से कार्यक्रमों का संयोजन करना हो तो उन्हें छोटे देश फिजी से यह अवश्य सीखना चाहिए। आखिरकार अच्छी बातें तो कहीं से भी सीखी जा सकती है।

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