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चेतना का नवोन्मेष संदेश ‘गुड़ी पड़वा’

शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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गुड़ी पड़वा विशेष….

‘वैविध्य’ की अर्थ संपूर्णता व व्यापकता हिंदू संस्कृति में पूर्णमासी के चंद्रसमान है। हिंदू संस्कृति अपने में प्रकृति की विशिष्ट संरचना को समाहित किए हुए है। हमारे देश में प्रकृति की भागौलिक देन के कारण प्रत्येक ३ मास के बाद ऋतु परिवर्तन होता है। परिवर्तन के दौरान व्यक्ति के शरीर व मन पर पड़ने वाले प्रभावों को विशेष त्यौहारों की परिधि में निमित्त किया गया है,जो ऋषि-मुनियों के अपने अथक तप व अभिव्यक्ति में अत्यधिक गहरे विश्लेषण से विवेच्य है।
हिन्दुओं में अनेक त्यौहारों के मनाने की प्रथा ब्रह्मा के ब्रह्मांड रचाने के समय से ही प्रवाहित है। ‘गुड़ी पड़वा’ चैत्र मास की प्रथम प्रतिपदा को मनाया जाने वाला विशिष्ट त्यौहार है। चैत्र मास में प्रकृति में सर्द हवाओं का गर्म हवाओं में परिवर्तन त्वरित आरंभ हो जाता है। यह ऋतु परिवर्तन चराचर जगत के समस्त प्राणियों को प्रभावित करता है-प्रकृति में वसंत उच्चतम स्तर पर चहुंओर वनस्पतियों पर नई लतिकाओं,फूलों व फलों से मनमोहक हो जाता है, पशु-पक्षियों व प्राणियों में सृजन इच्छा जागृत होती है। इस प्रकृति बदलाव के कारण प्राणियों के तन-मन पर पड़ने वाले प्रभाव की रोकथाम,सजग व हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए विविध मौसमानुकूल व्यंजनों,उपवास आदि द्वारा ऋषियों ने हर्षोल्लास व प्रकृति के स्वागत त्यौहारों के साथ प्रतिपादित किया है। भारत संस्कृति में ये त्यौहार मौजमस्ती या मनोरंजन के साधन के साथ-साथ स्वस्थ तन-मन के निर्माण में अपना अभूतपूर्व योगदान देते हैं। वैदिक काल से प्रचलित समस्त त्यौहार अपने में अद्वितीय स्वस्थ मानसिक व शारीरिक ऊर्जा को संबोधित करते हैं।
चैत्र मास की पहली प्रतिपदा को मनाया जाने वाला त्यौहार भारत के संपूर्ण प्रदेशों में भिन्न नामों से मनाया जाता है-महाराष्ट्र में ‘गुड़ी पाड़वा’ तो असम में ‘बिहू’ आदि। इसके अतिरिक्त विदेशों में-नेपाल, म्यांमार, कंबोडिया आदि में यह त्यौहार ‘साजिबू नोंगमा पन्ना चीराओव’ के नाम से मनाया जाता है।
‘गुड़ी’ लोक शब्द का अर्थ है-घरों पर लगा झंडा’ जिसे महाराज छत्रपति शिवाजी द्वारा उद्घोषित ‘विजयीध्वज’ का प्रतीक और ‘पाड़वा’ शब्द मूल रूप से संस्कृत से उद्धृत है,जिसका अर्थ है- ‘चैत्र मास की प्रतिपदा।’ अर्थात् चैत्र मास की प्रथम प्रतिपदा में चंद्रमा के पहले चरण को मराठी में ‘गुड़ी पड़वा’ कहते हैं।
संपूर्ण भारत में हिन्दू अपनी प्रांतीय भागौलिक स्थिति के आधार पर ही त्यौहारों को उत्सुकता से मनाने में विश्वास रखते हैं। एकरूपता मात्र इतनी है कि यह सब हिंदू धर्म के त्यौहार है। नियम,समय और तौर-तरीक़े अपनी सुविधा के अनुसार मनाने की अनुमति आदि का अधिकार हिंदू धर्म व संस्कृति के अलावा और किसी धर्म के पास नहीं है। पड़वा के दिन घरों के बाहर एक छड़ी पर रेशमी चमकीला वस्त्र,आम व नीम के पत्तों से गूंथी फूलों की माला को लपेट कर चाँदी या कांस्य या तांबे के पात्र से ढक कर घर बाहर के दायीं ओर के दरवाज़े या खिड़की या छत या ऊँचे पेड़ पर खड़ा रखते हैं, जिसे लोग आसानी से देख सकें। लोगों की मान्यता है कि यह त्यौहार घर व परिवार को बुराइयों से दूर रखता है और सुख-स्मृद्धि व सौभाग्य का आशीर्वाद देता है।
युग-युगांतर से त्यौहारों के मनाने की पारंपरिक प्रथा में अनेक घटनाएँ,मन्तव्य भी जुड़े हैं,क्योंकि प्रत्येक युग व्यक्ति विशेष प्रधान होने की वजह से ही इतिहास के रूप में अपनी समय-बद्धता को जीवंत रखने में सक्षम होता है। भारत के विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न नामों से प्रचलित इस त्यौहार के संबंध के अनेक धारणाएँ प्रचलित हैं। ब्रह्मपुराण के अनुसार इस दिन ही सृष्टि की रचना ब्रह्मा ने की थी। भास्कारार्चार्य ने हिन्दु पंचांग विक्रम संवत् का आरंभ चैत्र मास की पहली प्रतिपदा से ही गणना की। हिन्दू मान्यताओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारणा यह है कि इस दिन को वर्ष का पहला दिन मानते हुए हिंदू चंद्र सौर कैलेंडर की रचना करना शुभ होता है। विभिन्न राज्यों में कृषकों की दृष्टि इस दिन तैयार रबी फसल को काटने के पश्चात नई फसल बौने की तैयारी प्रसन्नता से करना होता है। पंजाब में इसे ‘वैसाखी’ के नाम से जाना जाता है।
ऐसे ही अनेक मान्यताएँ अपने युग की विजयी घटनाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। मसलन भगवान श्री राम द्वारा दक्षिण के लोगों को बाली के अत्याचारों से मुक्त करवाना और विजय पताका फहराना,राम का राज्याभिषेक होना,सम्राट विक्रमादित्य द्वारा शकों को पराजित करना, भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार लेना,युधिष्ठिर का राज्यारोहण होना,दुर्गा उपासना,सिंध प्रात में वरुणावतार के रुप में झूलेलाल का जन्म आदि।
‘गुड़ी पड़वा’ त्यौहार नवोन्मेष का संदेश देने के साथ ही प्रकृति चेतना सहित समस्त प्राणियों में उत्थान व उंमग भरता है। निस्संदेह प्रकृति सौंदर्य की अद्भुत छटा से चिरंतर प्रवाह कभी तो सृष्टि से यह प्रश्न पूछती होगी,-‘बता ऐ सृष्टि ! तुम हमसे सुंदर हो या हम तुमसे सुंदर हैं!’ और सृष्टि का कण-कण यही उत्तर देता होगा, ‘दोनों ही प्रश्न व उत्तर देने में सक्षम हैं।’ हमारी यही प्रार्थना है कि,त्यौहारों का यह कारवाँ यूँ ही सदा चलता रहे,धर्म हिन्दू बन संदेश देता रहे,-
‘सुख की पराकाष्ठा सीखनी है तो हमारे त्यौहारों से सीखो,
उत्तमता की तमन्ना हो तो पहले स्वस्थ रहना सीखो,
सहृदयता की बात जब चले तो झेंपों मत,ख़ुशियों की अपार क्षमता है,
बस,तुम अमानवीयता तज दो और दुखों से दूर रहना सीखो॥’

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