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चॉपस्टिक्स-कम बजट की फ़िल्म से बेहतरीन सन्देश

इदरीस खत्री
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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‘चॉपस्टिक्स’ में कलाकार अभय देओल, मिथिला पलकर,विजय राज,अचिंत कौर, और अभिषेक भालेराव हैं। निर्देशक सचिन यर्दी हैं। संगीत-प्रदीप मुखोपाध्याय का है। इसका समय १०० मिनट है।
बड़ी मुश्किल होती है जब कोई फ़िल्म कम बजट की होती है,और फ़िल्म धीमे से ज़हन से होती हुई दिल तक पहुँच जाती है। ‘चॉपस्टिक्स’ के देखते वक्त यही हुआ है। एक और असमंजस कि फ़िल्म को समानांतर,कला,या यथार्थवादी फ़िल्म की श्रेणी में रखूँ या व्यवसायिक,बेहद छोटी कहानी को बड़ी सादगी से गूँथा गया है।

एक लड़की निरमा(मिथिला) मध्यमवर्गीय परिवार से है,जिसकी नौकरी मुम्बई की एक बड़ी विज्ञापन एजेंसी में होती है, जहाँ वह चीनी भाषा अनुवादक है। वह अपनी बचत से एक कार खरीदती है। वह काऱ उसी शाम को कार चोर पार्क करने के बहाने से चुरा लेते हैं। पहला दिन-कार चोरी,मध्यमवर्गीय परिवार के लिए कार एक सपना होता है,जो सपना चोरी हो जाता है,अब तलाश सपना वापस लाने की है। निरमा पोलिस स्टेशन जाती है लेकिन भारतीय पुलिस अपनी कर्मपरायणता का बोध उसे करा देती है। यहीं उसे एक चोर मिलता है जो उसे आश्वस्त कर देता है कि एक महाचोर है जो कार खोज देगा। उस महाचोर का नम्बर भी दे देता है। वह महाचोर १८ साल में एक बार भी पोलिस द्वारा पकड़ा नहीं जा सका-उसका नाम है ‘आर्टिस्ट'(अभय देओल)।
शाम को निरमा के माता-पिता का फोन आता है। वह काऱ को देखने आने वाले हैं सप्ताहंत पर,इसलिए अब निरमा मजबूर होकर आर्टिस्ट को फोन लगाकर मिलने जाती है। आर्टिस्ट की अपनी खूबियां है वह खानसामा(शेफ) बनना चाहता है, साथ ही वह हर तरह के ताले तोड़ने में माहिर भी है। उसकी एक गैंग है जो भिखारियों से चिल्लर जमा करती है, जिससे उसका अपना काली दुनिया में नेटवर्क तंत्र होता है,जिसकी मदद से आर्टिस्ट कार मालिक निरमा को लेकर चोरी की कार खरीदने वाले के अड्डे पर पहुँचता है। यहाँ एक कार के पुर्ज़े-पुर्ज़े अलग मिलते हैं,जिसमें से एक नट को उठा कर निरमा देखती है तो ख्वाब के बिखरने पर भावनात्मक होकर रो देती है। अगले दिन पता चलता है कि कार किसी दूसरे फय्याज भाई (विजय राज) को बेची गई है। फय्याज भाई डॉन तो है ही,साथ ही बकरों को लड़ाने का धंधा भी करता है जिसके लिए उसके पास एक बड़ा ‘बाहुबली’ नाम का बकरा भी है जिसे वह जी-जान से रखता है। फय्याज भाई का बाहुबली निरमा की चोरी की गई कार में बैठ जाता है तो फय्याज भाई उस कार को न तोड़ते हैं,न बेचते हैं,परन्तु आर्टिस्ट और पोलिस के लिए फय्याज भाई से काऱ निकलना नामुमकिन है।
फय्याज भाई के वहां बकरों की कुश्ती से पहले एनिमल प्लेनेट वाले साक्षात्कार के लिए पहुँचते हैं,जिससे खुश होकर फय्याज भाई बकरे और चेनल वालों की तस्वीर अपनी बिरादरी के उर्दू अखबार में छपवा देते हैं,जिसमें बाहुबली बकरा चेनल वालों के साथ खड़ा है और पीछे निरमा की काऱ खड़ी है। निरमा यह अखबार सिटी बस में एक पाठक के हाथ में देखकर अपनी काऱ पहचान लेती है। यह आर्टिस्ट की मदद से चेनल शूट वाले दिन बाहुबली का मेकअप करने के बहाने से पहुँच कर बाहुबली को अगवा करके दूसरा बकरा छोड़ देते हैं।
यह जानकर फय्याज भाई अपना आपा खो देते हैं,लेकिन कुछ समय बाद निरमा खुद बाहुबली को लेकर फय्याज भाई के पास पहुँच जाती है। तब फय्याज भाई को एहसास होता है अपनी प्रिय चीज के खोने का। फय्याज भाई नादिम (आत्मग्लानि)होकर काऱ वापस दे देते हैं, साथ ही बकरों की कुश्ती भी बन्द करने का ऐलान कर देते हैं।
दोस्तों,मैं हमेशा लिखता हूँ कि फ़िल्म छोटी की जा सकती थी,लेकिन पहली बार लिख रहा हूँ फ़िल्म की समय सीमा बढ़ाई जा सकती थी,क्योंकि पूरी फिल्म में आपका ध्यान कभी घड़ी पर जाता ही नहीं है,यह निर्देशक का कमाल था।
इस फ़िल्म का बजट बमुश्किल ४ करोड़ होगा (जो कि किसी धारावाहिक के एक अंक का होता है।),लेकिन फ़िल्म आपको बांधने में पूरी तरह कामयाब है।
अदाकारी पर बात करें तो अभय देओल नैसर्गिक अभिनय की पाठशाला के विद्यार्थी हैं,यानी बलराज साहनी की तरह या फरहान अख्तर की तरह अभय ने पूरे किरदार को इतनी संजीदगी से गड़ा है कि वही आर्टिस्ट किरदार लगने लगते हैं। मिथिला पलकर का चयन उनकी मौलिक भाव-भंगिमाओं और हाव-भाव को देख किया गया लगता है
विजय राज राष्ट्रीय नाटय विद्यालय और पृथ्वी थिएटर की शान रहे हैं,उनकी उपस्थिति ही दर्शक को बांध देती है। अचिंत कौर को जो किरदार मिला,उसे बीसियों बार निभा चुकी है।
निर्देशक सचिन यर्दी लेखक से निर्देशक बने हैं। ‘क्या सुपर कूल हैं हम’,’सी कम्पनी’ का निर्देशन कर चुके हैं। यह इनकी तीसरी फिल्म थी, जिसमें वह दर्शकों को बांधने में सफल हुए हैं। निर्देशक का एक कलात्मक पहलू होता है जिसमें वह निपुण लगे।
कार पर देश में ‘टार्जन द वंडर काऱ’,’मेरे डेड की मारुति’ भी आ चुकी है,लेकिन यह फ़िल्म कलात्मक फ़िल्म मानी जाएगी।
अब देश में मल्टीप्लेक्स सिनेमा घर कर गया है,जहाँ ऐसी छोटे बजट की फिल्मों के प्रदर्शन पर आसानी होती है। फिर फ़िल्म को सेटेलाईट अधिकार बेच कर मुनाफा निकाल लिया जाता है। इस फ़िल्म का न प्रचार-प्रसार किया गया, न ही कोई बड़े सितारे,परन्तु फ़िल्म बड़ी सहजता से सन्देश देने में सफल रही है। रेटिंग की बात बेमानी होगी।
यदि आप एक स्वस्थ फ़िल्म देखने के शौकीन हैं,तो फ़िल्म आपका पूरा मनोरंजन करेगी। इसमें न रोमांस,न खूब सारे गाने,फिर भी फिल्म बांधे रखती है।

परिचय : इंदौर शहर के अभिनय जगत में १९९३ से सतत रंगकर्म में इदरीस खत्री सक्रिय हैं,इसलिए किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। परिचय यही है कि,इन्होंने लगभग १३० नाटक और १००० से ज्यादा शो में काम किया है। देअविवि के नाट्य दल को बतौर निर्देशक ११ बार राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व नाट्य निर्देशक के रूप में देने के साथ ही लगभग ३५ कार्यशालाएं,१० लघु फिल्म और ३ हिन्दी फीचर फिल्म भी इनके खाते में है। आपने एलएलएम सहित एमबीए भी किया है। आप इसी शहर में ही रहकर अभिनय अकादमी संचालित करते हैं,जहाँ प्रशिक्षण देते हैं। करीब दस साल से एक नाट्य समूह में मुम्बई,गोवा और इंदौर में अभिनय अकादमी में लगातार अभिनय प्रशिक्षण दे रहे श्री खत्री धारावाहिकों और फिल्म लेखन में सतत कार्यरत हैं। फिलहाल श्री खत्री मुम्बई के एक प्रोडक्शन हाउस में अभिनय प्रशिक्षक हैंl आप टीवी धारावाहिकों तथा फ़िल्म लेखन में सक्रिय हैंl १९ लघु फिल्मों में अभिनय कर चुके श्री खत्री का निवास इसी शहर में हैl आप वर्तमान में एक दैनिक समाचार-पत्र एवं पोर्टल में फ़िल्म सम्पादक के रूप में कार्यरत हैंl

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