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जनतंत्र में जनभाषा ही होनी चाहिए न्याय की भाषा

जम्मू-कश्मीर राज्य का उर्दू भाषा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं रहा। उर्दू का उदय दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में ही हुआ था। कश्मीर में तो इस्लामिक शासन भी नहीं था,वहाँ तो हिंदू राजा हरि सिंह का शासन रहा, लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात इस्लामिक कट्टरता और प्रभाव के कारण कश्मीरियत की बात करनेवाले अब्दुल्ला,मुफ्ती एन्ड कम्पनी ने पाकिस्तान की तर्ज पर वहां की राजभाषा उर्दू बनाई थी। आज भी ये मजहबी कट्टरवादी कश्मीरी की नहीं, उर्दू की बात कर रहे हैं। कश्मीर के साथ-साथ जम्मू क्षेत्र भी है,इसलिए
वहां की भाषा अष्टम अनुसूची में दी गई कश्मीरी और हिंदी को रखा जाना चाहिए। शासन-प्रशासन की दृष्टि से हिंदी अधिक सम्पन्न है,और संघ की राजभाषा भी है।
वैसे यदि लिपि की बात छोड़ दें,तो हिंदी उर्दू में कोई खास फर्क है भी नहीं। अरबी-फारसी से आए कुछ शब्दों और लिपि के अलावा क्या अलग है ?, लेकिन हर समस्या का मूल कारण मजहबी कट्टरता में छिपा हुआ है। विशेषकर पिछले लंबे समय से जबसे वहां पर ‘वहाबीज्म’ की सोच बढ़ाई गई। पूर्व में वहां सूफीवाद के चलते जैसी सामाजिक सदभाव,समरसता और उन्नत संस्कृति थी,अब नहीं रही। वहाबीज्म,जो कट्टर जेहादी मानसिकता को बढ़ाता है,वह कश्मीर का तो नहीं है। उत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रों से वहां पहुंचा,उसने धीरे-धीरे नष्ट कर कश्मीर की वादियों में कट्टरता का विष घोल दिया। इसमें पाकिस्तान की साजिशों की बड़ी भूमिका है।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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