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तपन

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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सड़कों पर चलती टोलियाँ,
मजदूरों की जाती अपने गाँव
नसीब न छाता सिर पर उनके,
न ही हरे पेड़ों की छाँव।
नन्हीं गुड़िया पूछती- “बापू,
कितनी दूर है अब तो ठाँव ?”
बाबा हलकारे और दुलारे,
“थोड़ी दूर चलो, मैं तुझे बताऊं।”
“भूख लगी है बाबा मुझे”
“बिन पैसे मैं तुझको बेटी क्या लाऊं ?”
“बस दर्शन दुकान के करा दो बाबा,
मैं कुछ न मांगूं, कुछ न खाऊं।
जी भर देख लूं सारी चीजें,
अपने दिल को उसी से मनाऊं।”
मजबूर है बाबा, दुकानें बंद है,
नन्हीं गुड़िया को क्या दिखाऊं ?
सर पे तपन है, दिल में सपन है,
उस बेचारे के अरमान दफ़न है
निकला है वह पैदल पथ पर,
बांध के सिर पर अपने कफन है।
श्वांसें लुहारों की धौंकनी-सी,
तपाती प्राण का लोहा
हिम्मत-हथौड़े की चोटें दे-दे,
बिटिया के दिल को मोहा।
गाता गीत वह, भजन-लोरी कभी,
कभी गाता कबीर का दोहा।
ऐसा संकट बाप-बेटी ने,
न देखा-भला और न जोहा॥

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