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दिखावे की प्रतिस्पर्धा से भक्ति घटी

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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शक्ति, भक्ति और दिखावा…

भक्ति, शक्ति और दिखावा ये तीनों शब्द एक-दूसरे के पूरक होते हुए भी अर्थ एंव साम्यर्थ में भिन्न हैं। हिन्दुओं का हर त्यौहार भक्ति-भावना की ज्योति जलाकर ही आता है, पर आजकल इस भक्ति-भावना में आडम्बर एवं दिखावे का इतना बाहुल्य है कि, भक्ति-भावना तिरोहित हो गई है।
यह सच है कि,भक्ति में ही शक्ति है, इसलिए कहा गया है कि, ‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भयो न कोए, ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होए।’
भक्ति की पराकाष्ठा रावण में भी दिखाई पड़ी थी। तभी तो उसने सारे देवताओं को अपने वश में कर लिया था, और वृहद् शक्ति का अधिकारी बना था, पर शक्ति के आते ही उसकी मन-भावना बदल गई, और वह अंहकारी हो गया। दिखावे में भी यही भावना निहित रहती है। आजकल ज्यादातर दुर्गा पूजा का आयोजन इसी दिखावे के अन्तर्गत हो रहा है। आपस में जैसे सबसे ज्यादा सुन्दर पंडाल बनाने की प्रतिस्पर्धा-सी मची हुई है। अतः जो यहाँ जाते हैं, वह भी इसी दिखावे में उलझ कर रह जाते हैं, अर्थात पूजा-भक्ति गौंण हो जाती है। इसी प्रकार जगराते में भी यह सब होने लगा है। यहाँ तक कि, जगराते में किसी-किसी के मस्तिष्क में देवी जी आई हैं, इसका भी प्रचलन है। इसके पीछे कितना सत्य है, यह तो पता नहीं, पर यह भी एक दिखावा ही है।
नौ दिन माता के नव रूपों की पूजा की जाती है, अतः महिलाएँ नव दिन तक व्रत भी रखती है। यह भक्ति-भावना है, इसमें कोई संदेह नहीं, पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि जो व्रत नहीं रखती, उनमें भक्ति नहीं है। कुछ लोग गरीबों की सहायता करना ही इन दिनों माँ की आराधना मानते हैं। जैसे रोजे के समय दान-पुण्य करना मुसलमानों का सबाब माना जाता है।
निष्कर्ष यही है कि, तीनों शब्द विशेष कर आज के हालातों में एक-दूसरे के पूरक हैं।

रावण दहन भी क्या है ? यही दिखावे का मेला, जहाँ सभी जाते हैं खुशी मनाते हैं। यहाँ भक्ति आपको ढूंढे नहीं मिलेगी, पर दिखावे से भक्ति घटी है और शक्ति भी।