गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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ऋषि पञ्चमी (१सितम्बर) विशेष….
वैदिक काल में जिसे हम रक्षासूत्र कहते थे, उसे ही आजकल राखी कहा जाता है। मुझे याद है बचपन में हमारी बुआजी ऋषि पञ्चमी वाले दिन पहले पहले रेशम की ५ या ७ पतली रंगीन डोरियों से बनी रक्षासूत्र थोड़ा फैलाकर हम सभी के हाथ में बाँधती थी । बाद में हमारे आग्रह पर हमारी माताजी ने रेशमी फुंदों वाली राखी हमारी बहन से बँधवाना शुरू किया तब बुआजी ने भी उसी अनुसार हम भतीजों के लिए रेशमी फुंदों वाली राखी बाँधना प्रारम्भ कर दिया, जबकि पिताजी को तो वही रेशम की पतली रंगीन डोरियों वाला वैदिक रक्षा सूत्र बाँधती थी।
रक्षासूत्र केवल पतली रंगीन डोरियाँ नहीं, बल्कि यह बाँधने और बँधवाने वालों के बीच आदान-प्रदान होने वाले शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों को दर्शाता है। प्राचीन समय में अर्थात इस पर्व की शुरूआत के समय उपलब्धता के आधार पर एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े के टुकड़े में दूर्वा, अक्षत (साबूत चावल), केसर या हल्दी, शुद्ध चंदन एवं कुछ सरसों के साबूत दाने-इन ५ समानों को मिलाकर छोटे से कपड़े के टुकड़े में बाँध रक्षासूत्र वाले कलावे से जोड़ हाथ पर बाँध देते थे। कालान्तर में यही स्वरूप पहले तो रेशमी फुंदों वाली राखी में बदला और धीरे-धीरे आज जिस रूप में हम सभी देख रहे हैं, अर्थात केवल कच्चे सूत जैसे कलावे, रेशमी धागे से आगे सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की राखियाँ उपलब्ध है।
यह पर्व २ अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी जिसे हम ऋषि पञ्चमी कहते हैं, वाले दिन माहेश्वरी जाति के अलावा गौड़, पारीक, दाधीच, सारस्वत, गुर्जर गौड़, शिखवाल के अलावा खन्डेलवाल माहेश्वरी एवं पुष्करणा हर्ष जाति में बहन भाई को रक्षासूत्र या राखी बांधती है, जबकि बाकी सभी जगह (क्योंकि यह पर्व न केवल पूरे भारत में बल्कि नेपाल में भी, श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन जिसे हम श्रावणी-पूर्णिमा कहते हैं) रक्षाबंधन वाले त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
माहेश्वरी समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी अर्थात परम्परागत रुप से ऋषि पञ्चमी के दिन ही बहनें अपने भाईयों को रक्षासूत्र बांध यह त्यौहार मनाते आ रहे हैं। हालाँकि, आजकल यह भी देखने में आ रहा है कि एक ही परिवार में दोनों ही दिन यह पर्व मनाया जाने लगा है जिसका मुख्य कारण अन्तर्जातीय विवाह सम्बन्ध है। परम्परागत रूप से भारत एवं नेपाल के हिन्दुओं में अन्तर्जातीय विवाह बहुत कम होते रहे हैं, किन्तु अब शहरीकरण के चलते ज्यादा से ज्यादा युवा महिला और पुरुष जाति के बंधनों से परे अपनी व्यक्तिगत पसंद से शादी करना चाहते हैं और समाज से भी इसे अपेक्षाकृत अधिक स्वीकृति मिलने लग गई है।
उपरोक्त अनुसार दोनों समय मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई और बहन का त्यौहार है, भाई-बहन के प्यार का प्रतीक है। इन दोनों दिनों में बहनों में एक अलग तरह का उमंग देखने में आता है, जिसका एकमात्र कारण सुख-दु:ख में साथ निभाने की प्रतिबद्धता लेकिन आजकल सगी बहनों को उपहार चाहे नगद हो या अन्य किसी रूप में देकर इतिश्री कर लेते हैं, जबकि पहले दोनों के बीच, भले ही मुँह-बोली बहन हो या मुँह-बोला भाई, एक निश्छल प्रेम देखने मिलता था। इसका एक छोटा- सा उदाहरण हिन्दी साहित्य युग के महानायक और उसकी आत्मा क्रमशः पं सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और उनकी मुँह-बोली बहन महादेवी वर्मा के बीच रक्षाबंधन वाले दिन घटी घटना है।
श्रावण पूर्णिमा के दिन राखी बांधकर बहन अपने भाई से स्वयं की रक्षा करते रहने की प्रार्थना करती है, जबकि ऋषि पञ्चमी के दिन बहन उपवास कर भाई को राखी बांधकर भगवान से हमेशा अपने भाई की कुशल-मंगल की कामना करती है। आज की बदली हुई परिस्थति में दोनों ही पर्व पर अर्थात ऋषि पञ्चमी और श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन दोनों ही पर्व पर, बहन-भाई दोनों को एक-दूसरे की रक्षा का, न केवल संकल्प की आवश्यकता है, बल्कि दोनों को ही एक-दूसरे की कुशल-मंगल की कामना करने की भी आवश्यकता है।
यही सत्य प्रतीत होता है कि दोनों ही पर्व बहन- भाई के रिश्तों की मधुरता को दर्शाते हैं। भारतीय परम्पराओं में इन पर्वों का विशेष महत्व है। ऐसे पर्वों से सामाजिक सम्बन्धों को मजबूती मिलती है। दोनों का अपना-अपना अस्तित्व ही नहीं है, बल्कि पौराणिक एवं सामाजिक महत्व है और हमें दोनों को समझकर सम्मान करना चाहिए.. न कि अपनी सुविधा अनुसार धर्म की रीति को बदलना उचित है।