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पश्चिम से पुन: पूर्व की ओर…

शकुन्तला बहादुर 
कैलिफ़ोर्निया(अमेरिका)

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विश्व हिंदी दिवस’ विशेष….

स्वर्ग में सभा जुटी थी। महर्षि पतंजलि उदास बैठे थे। योगिराज श्रीकृष्ण और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी सभा में थे। तभी नारद मुनि आ पहुँचे। सबने अभिवादन किया। मुनि बोले, महर्षि पतंजलि! आप इतने उदास क्यों हैं ? ऋषि ने कहा-“क्या बताऊँ तुमको ? मैंने अपना योगदर्शन का ग्रन्थ देववाणी संस्कृत और देवनागरी लिपि में लिखा था। विदेशियों ने परिश्रम से उसे अपनाकर अपनी भाषा में कर लिया। आज सारे जग में योग को अंग्रेज़ी के माध्यम से परोसा जा रहा है। जैसे वह उनकी अपनी सौग़ात हो,जिसे बड़ी उदारता से सबको बाँटा जा रहा हो। सच तो ये है कि विदेशियों से उपभोग के बाद बचे यानी कि उच्छिष्ट के रूप में वह ज्ञान मेरे भारतीयों के पास पहुँच रहा है। आज ‘योग’ के शिक्षक बिना मेरा योग दर्शन पढ़े ही इंग्लिश बोलने वाले शिक्षकों से सीखकर इंग्लिश में ही योग सिखा रहे है,जिसमें कभी-कभी कुछ अशुद्धियाँ भी रह जाती हैं।”

नारद मुनि बोले-ऐसा क्या सुन लिया आपने ?
पतंजलि बोले-एक आसन है,जिसे अंग्रेज़ी में ‘रैबिट पोज़’,यानी कि ख़रगोश की स्थिति का आसन। मैंने कई शिक्षकों को ‘रैबिट पोज़’ के बाद ‘शशांक आसन’ कहते सुना है। शशांक का अर्थ है चन्द्रमा। ये चन्द्रमा का आसन तो है नहीं। वस्तुत: संस्कृत में ख़रगोश के लिये दो शब्द हैं-शश और शशक। चन्द्रमा में दिखने वाले चिह्न को जनश्रुति में चन्द्रमा की छवि मानकर,जिसके अंक यानी गोद में शश यानी ख़रगोश बैठा है- इस कल्पना से चन्द्रमा को शशांक कहते हैं। तो ये आसन सभी योग ग्रन्थों में ‘शशक आसन’ या ‘शशकासन’ कहा जाता है। कोई-कोई शशंक या सशंक आसन भी कहते हैं। ये भी अशुद्ध हैं।
और क्या कहूँ ? आज सारे विश्व में योग का बोल बाला है,जिसे सब ‘योगा’ कहते हैं। संस्कृत की युज् धातु से बना है योग शब्द।जिसका अर्थ है जोड़ना। अष्टांग योग द्वारा चित्तवृत्तियों को नियंत्रित करके आत्मा को परमात्मा से जोड़ना है। उसे लोग मनमाने ढंग से योगा कहते हैं। यदि कोई योग कहे तो उसे अशुद्ध समझा जाता है। अच्छा हो कि योगा न कहकर ‘योगासन’ कहें। अब तो थोड़ी-सी कसरत करने वाला भी गर्व से कहता है- मैं योगा करता हूँ।
प्रायः योग-शिक्षक इंग्लिश में ही बोलते और सिखाते हैं। क्या किसी भारतीय भाषा में योग नहीं सिखाया जा सकता,जिसे अधिक लोग समझते हों।
योगा,रोगा,भोगा आदि सब अशुद्ध हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त भी रोमन लिपि में अंतिम ए वर्ण के कारण इसे योगा ही कहते हैं। मुझे दु:ख होता है।’
तभी श्री राम और श्री कृष्ण भी उठकर सामने आए। कहने लगे-हमें भी तो पृथ्वी के लोगों ने रामा,कृष्णा बना दिया है। हमारे पुल्लिंग नामों को स्त्रीवाचक नाम बना दिया है। योगिराज कृष्ण बोले -“जब कृष्ण को कृष्णा कहते हैं तो फिर कृष्णा यानी कि द्रौपदी को क्या कहेंगे ? मैं सोचता हूँ कि मुझे बुला रहे हैं या द्रौपदी को ?”
ऐसे ही रोमन के प्रभाव से देवनागरी के शुद्ध शब्द अशुद्ध रूप में प्रचलित हो गए हैं। वैसे ये भाषा का नहीं है,बोलने वालों का दोष है। मेरा मत है कि जितनी भी देशी या विदेशी भाषाएँ हम सीखें,उतना अच्छा है। भारतीय इंग्लिश धाराप्रवाह बोलते हैं। विदेश में उनको उच्च पदों पर आसीन देखकर गर्व भी होता है,किन्तु जहाँ उसकी आवश्यकता हो,विदेशियों के साथ और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञानार्जन हेतु विदेशी भाषा उपयोगी सिद्ध होती हो,उसका प्रयोग अवश्य करें,किन्तु उसके सामने अपनी भारतीय भाषा या मातृभाषा को हेय या दीन-हीन मानना,उसका अपमान या तिरस्कार करना ही होगा,जो सर्वथा अनुचित है।
सन् १९६३ की बात है। मैं जर्मनी में हिन्दी पढ़ा रही थी। कई देशों के छात्र कक्षा में थे। एक छात्र ने इंग्लिश में पूछा-
“क्या भारत की अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है ?” मैंने कहा-हिन्दी है। उसने कहा-मैंने आज तक किसी भारतीय को हिन्दी बोलते नहीं सुना। मैंने कहा-जब विदेशी साथ में होते हैं,तो उनके समझने के लिए भारतीय इंग्लिश में बोलते हैं। उसने पुन: प्रतिवाद किया-“नो मैडम,अकेले इंडियन ग्रुप में भी मैंने उनको इंग्लिश में ही बात करते देखा है।” तब मैंने उसे समझाया कि भारत में अनेक भाषाएँ हैं। ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया था,अतः पूरे भारत में लोगों को आपस में समझने,बात करने में अधिक सुविधाजनक हो गई,लोग इसके अभ्यस्त हो गए। उस दिन मेरी अस्मिता को बहुत ठेस लगी थी।
किसी भी स्वतन्त्र राष्ट्र के लिए राष्ट्र-ध्वज के साथ ही राष्ट्र-गान और राष्ट्र-भाषा भी अत्यन्त आवश्यक होती है। वह भाषा जिसे देश के बहुसंख्यक लोग समझ और बोल सकें,वही राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँध कर संगठित कर सकती है। स्वतन्त्रता-संग्राम के समय विभिन्न प्रान्तीय भाषाएँ बोलने वाले हिन्दी के माध्यम से एकजुट हो गए थे।भाषा ने ही संगठित किया था। अंग्रेज़ों ने अंग्रेज़ी को पूरे देश में अनिवार्य करके सबको एक सूत्र में बाँध दिया था। उन्होंने हमारी भाषा सीखकर और अपनी सिखा कर,हमारे ग्रन्थों का अनुवाद करके उनको ही हमारी शिक्षा के पाठ्यक्रम में लगा दिया। मुझे याद है-मैंने एम.ए. संस्कृत में जो पुस्तकें पढ़ी थीं,वे थीं-पीटरसन सेलेक्शन ऑफ़ ऋग्वेद और ऐतरेय ब्राह्मण पर हॉग की कमेंट्री वाला ग्रन्थ। लगता था जैसे ऋग्वेद और ऐतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ अंग्रेज़ों के मस्तिष्क की उपज हों, उनकी रचना हों,जबकि १९४७ में भारत स्वतन्त्र हो गया था। हमारे प्रोफ़ेसर्स भी सभी विदेशी विद्वानों के मत उद्धृत करके हमें पढ़ाते थे। बर्लिन की लाइब्रेरी में और इंडिया ऑफ़िस लाइब्रेरी,लंदन में हमारे अनेक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ सँजो कर रखी गई हैं , जिनकों मैंने वहाँ स्वयं देखा था।
भाषा संस्कृति की संवाहक है और संस्कृति देश की अस्मिता की परिचायक है। अतः हम भारतीयों को उन पर अभिमान होना चाहिए। हमारी भाषा वैज्ञानिक तो है ही,साथ में विश्व की प्राचीनतम भाषा है और प्राचीनतम संस्कृति भी है।
“विश्व जब सोया पड़ा था,जागता था देश अपना।” विदेशियों ने हमारे उस प्राचीनतम ज्ञान को अपनाने में अपना पूरा जीवन लगा दिया और आज वही उनके पास से हम तक लौट कर आ रहा है। जो भी हो,अपना परिवार,अपना देश,अपनी भाषा, अपनी संस्कृति हमारे आत्माभिमान को,स्वाभिमान और आत्मगौरव को जगाने वाले होते हैं। विदेश में अपनी भाषा बोलने वाले से मिलना कितना सुखद होता है और वैसे ही अपने देश के व्यंजन परोसने वाला भी मन को अधिक भाता है। अपनी वेश-भूषा से हम विदेश में पहचाने जाते हैं। जर्मनी में उषा पटेल ने मुझसे कहा कि आपको बहुत निमन्त्रण मिलते हैं,मुझे तो कोई नहीं बुलाता है। मैंने कहा कि मुझे भारतीय वेश-साड़ी में देखकर सब पहचान जाते हैं कि मैं भारत से हूँ। तुमको जीन्स और टॉप में लोग मैक्सिको या अन्य कहीं का समझ लेते होंगे।
वर्तमान समय में भारत में भी अंग्रेज़ी रची बसी है। पाश्चात्य वेशभूषा और व्यंजन भोजन के प्रति प्रेम अतिशयता से उमड़ रहा है। स्वदेशी के प्रति रुझान होना अत्यन्त आवश्यक है। आज देश की जो स्थिति है, उसमें स्वदेश और स्वदेशी की भावना ही देश की स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए,उसे उत्कर्ष की ओर ले जाने में समर्थ हो सकेगी।
सूर्य ने पूर्व में उदय होकर पश्चिम तक जो आलोक फैलाया था,वही आज पुनः पश्चिम से पूर्व की ओर लौट कर आ रहा है,लेकिन हमें राष्ट्रकवि के ये शब्द नहीं भूलना चाहिए-
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं नर-पशु निरा है,और मृतक समान है॥

जो भरा नहीं है भावों से,बहती जिसमें रसधार नहीं।
वो हृदय नहीं है,पत्थर है,जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥”

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