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बाप-बेटी का रिश्ता

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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वह नन्हीं-सी कली जब, खिल आँगन में आई
सारे घर की शोभा तब, थी उसी ने ही बढ़ाई
निज पेट काट-काटकर, तब पिता ने पढ़ाई
ज्यों जवान हुई थी, त्यों ही कर दी थी सगाई
भावना प्रेम की दोनों ने,अंदर ही अन्दर छुपाई
शादी हुई तो सह न पाया बाप, बेटी की विदाई।

पत्नी बोली-बस करो जी, यह भी कैसी है रुलाई ?
छुपा लो चीखें ज्यूँ, अर्थी पे जवां बेटे की छुपाई’
‘बाप-बेटी के रिश्ते को पगली, तू क्या समझ पाई ?
आज बेटी नहीं जी, मैंने अपनी रूह ही है बेहाई,
न जाने फूल-सी पली को, कैसे रखेगा जंवाई ?
चिंता बाप की है पगली, तेरी समझ में न आई।’

फूट-फूट कर बिटिया रोए, माँ -बाप और भाई,
टाली भी न जाए जी रीत, न ही जाए यह निभाई
पिता तो यूँ रोता है जैसे, लुट गई हो उसकी कमाई
गम, मौत बेटे की झेल लिया, झेल सका न विदाई
जब डोली उठी तो पिता को, यादें बहुत सारी आई
भला बेटी के जाने की, कर पाएगा कौन कहाँ भरपाई ?

ससुराल में गम सब सहे पर, पिता को गाली न सह पाई
स्वाभिमान जो है पिता उसका, चाहे हो जाए फिर लड़ाई
दिक हुई तो लाड़ली, लौट पुनः बाबुल के घर को आई,
लाड़-प्यार से समझा-बुझा के, बाबुल ने वापिस भिजवाई।
मौत पे पिता की जिसने, दु:ख में छाती कूट-कूट कर बजाई,
माँ-बाप तक ही तो था ये मायका, हो गई हूँ अब मैं पराई॥