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बेक़रारी हमारी-तुम्हारी

सरफ़राज़ हुसैन ‘फ़राज़’
मुरादाबाद (उत्तरप्रदेश) 
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छिनी दस्तकारी हमारी तुम्हारी।
कमी है यह सारी हमारी तुम्हारी।

उठे लाख तूफ़ाँ मगर अब भी यारों।
मुह़ब्बत है जारी हमारी तुम्हारी।

सभी हम पे ग़ालिब हुए जा रहे हैं।
है क्या होशियारी हमारी तुम्हारी।

जले दिल रक़ीबों के बुग़्ज़ ओ ह़सद से।
हुई जब से यारी हमारी तुम्हारी।

न जिस दिन मिले एक-दूजे से हम-तुम।
बढ़ी बेक़रारी हमारी तुम्हारी।

लुटी ज़िन्दगी,पर मुह़ब्बत की दिलबर।
न उतरी ख़ुमारी हमारी तुम्हारी।

मुबाईल पे मशग़ूल रहते हैं हरदम।
नज़र यूँ भी हारी हमारी तुम्हारी।

कटेगी सनम कैसे यह ज़िन्दगानी।
मुह़ब्बत की मारी हमारी तुम्हारी।

ग़ज़ल अपनी-अपनी सुना डालीं सबने।
‘फ़राज़’ अब है बारी हमारी तुम्हारी॥

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