हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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इंसानों की इन बस्तियों में,
है बे इंसानियत कैसे आ गई ?
इंसानियत खो गई आसमां में, या धरती उसे है खा गई ?
कुछ तो होगा जवाब इसका, जिसको समझ है आ गई
मेरी तो यह सोचते-सोचते ही, बुद्धि मानो सठिया गई।
सोचता हूँ इंसान में ही कुदरत को,
जब सब-कुछ भरना था।
तो क्यों बनाए पशु फिर ?,
चौरासी का फेर तो न पड़ना था।
जंगल में न लगता है डर कहीं,
अब बस्तियाँ बहुत डराती है
हर आध-पौने घंटे में बस्तियों में,
कोई वारदात घट जाती है।
भीड़-भड़ाके के शोर में भी, यह कैसा अंदरूनी सन्नाटा है ?
पति-पत्नी ही मर रहे हैं खुद में,
यह माहौल क्या बताता है ?
अनगिनत सवाल हैं उठते पर, जबाव कोई भी न देता है
उल्टा आज हर इंसान इसी में, जीवन का आनंद लेता है।
आखिर मैं कौन हूँ ? तभी मौन हूँ,
मेरी यहाँ क्या हस्ती है ?
भाईचारे की बातें हुई अब झूठी,
धू-धू जलती हर बस्ती है॥